जॉण्डिस या पीलिया अनेक कारणों से होता है। शरीर में लाल रक्त कोशिकाओं में हीमोग्लोबिन प्रोटीन होता है, जो कि रक्त में ऑक्सीजन वाहक का कार्य करता है। रक्त की लाल रक्त कोशिकाएं निरंतर बनती रहती हैं, और पुरानी नष्ट होती रहती हैं। लाल रक्त कोशिकाओं से टूटने से हीमोग्लोबिन निकलकर बिलिरूबिन लवण में परिवर्तित हो जाता है, वहां से बिलिरूविन लिवर में पहुंचकर रासायनिक परिवर्तन मल या पेशाब के माध्यम से शरीर से निकलता रहता है। यदि लाल रक्त कोशिकाओं की टूटने की प्रक्रिया तेजी से होती रहती है या लीवर के रोगों में बिलिरूबिन का स्तर रक्त में बढ़ जाता है, रक्त में जब बिलिरूबिन का स्तर 0.8 मि.ग्रा. प्रति 100 मि.ली. से बढ़ जाता है तो यह दशा जॉण्डिस कहलाती है, पर आंख तथा त्वचा का पीला रंग रक्त में बिलिरूबिन की मात्रा 2 से 2.5 मि.ग्रा. तक बढ़ने पर ही दिखाई पड़ता है।
लाल रक्त कणिकाओं के तेजी से टूटने के परिणामस्वरूप होने वाले पीलिया को ‘हिमोलिटिक जॉण्डिस’ कहते हैं। यह दशा असामान्य लाल रक्त किणकाएं या हीमोग्लोबिन की उपस्थिति के कारण कुछ विष या दवाओं के प्रभाव से हो सकती है। इस रोग में मूत्र का रंग सामान्य और मल गहरा भूरे रंग का होता है। जांच करने पर लीवर की कार्यशक्ति सामान्य मिलती है।
दूसरी तरह का पीलिया लीवर रोगों जैसे वायरल हिपेटाइटिस, सिरहोसिस इत्यादि में लीवर में बिलिरूबिन का युग्गम बाधित हो जाने के फलस्वरूप होता है, इस दशा को ‘हिपेटिक जॉण्डिस’ कहा जाता है। इन रोगों में पेशाब का रंग गहरा पीला, मल चिकना और हल्के रंग का होता है। जांच करने के लिए लीवर की कार्यक्षमता कम मिलती।
तीसरी दशा में पित्त के निकास मार्ग में पत्थरी या कैंसर या संक्रमण के कारण, बाधा आने के कारण होने वाले पीलिया रोग को ‘आबस्ट्रक्टिव जॉण्डिस’ कहते हैं। इस दशा में मूत्र का रंग गहरा पीला, मल चिकना और सफेद या मिट्टी के रंग का होता है तथा लीवर की कार्यक्षमता शुरूआत में सामान्य होती है।
नवजात शिशु में पीलिया- नवजात शिशुओं में कभी-कभी खास तौर पर यदि जन्म से पहले अपरिपक्व जन्में हैं तो जन्म के बाद 2-3 बार हल्का पीलिया हो जाता है। वैज्ञानिकों के विचार में इस प्रकार के पीलिया का कारण लीवर का अपरिपक्व होना होता है। इन शिशुओं का उपचार अल्ट्रावायलेट किरणों में कुछ समय तक रखकर किया जाता है।
एक अन्य प्रकार का गंभीर जॉण्डिस बच्चों में मां और गर्भस्थ बच्चें में आर.एच. ब्लड ग्रुप के अलग-अलग होने के परिणामस्वरूप हो सकता है। यदि मां का ब्लड ग्रुप निगेटिव और पिता एवं गर्भस्थ शिशु का पॉजिटिव है तो शिशु की लाल रक्त कणिकाएं टूटने लगती हैं ऐसी दशा में बच्चा पीलिया ग्रसित जन्म ले सकता है, यदि रक्त में बिलिरूबिन का स्तर 20 मि.ग्रा. से ज्यादा है तो मस्तिष्क पर स्थायी प्रभाव हो सकता है। इस रोग की रोकथाम के लिए मां का ब्लड ग्रुप निगेटिव और पिता का पॉजिटिव है तो मां को गर्भावस्था की तीसरे तिमाही में तथा प्रसव के बाद एन्टीबाडीज के इन्जेक्शन दिए जाते हैं जिससे एन्टीजन नष्ट हो जाएं और गर्भस्थ शिशु तथा अगले बच्चे में समस्या न हो। यदि कोई शिशु रोगग्रसित जन्म लेता है तो उस नवजात शिशु का रक्त स्वच्छ बच्चे के ही रक्त गु्रप के रक्त से बदलकर उपचार किया जाता है। अनेक बच्चों में गुण सूत्रों में बदलाव के कारण लाल रक्त कणिकाओं में टूटने की प्रक्रिया तेज हो सकती है।
वायरस हिपेटाइटिस-इस पीलिया के होने का सबसे सामान्य कारण लीवर का वायरस से संक्रमण है, लीवर को हिपेटाइटिस ए. बी. सी. डी. ई. प्रजाति के वायरस संक्रमित कर सकते हैं। ए और ई प्रजाति के वायरस से संक्रमण पीलिया होने का सबसे प्रमुख कारण है। हिपेटाइटिस बी, सी, डी, प्रजाति के वायरस से संक्रमण एड्स रोग के सदृश्य संक्रमित सूई से इन्जेक्शन लगने, संक्रमित मरीज के रक्त चढ़ाए जाने, संभोग से या गर्भस्थ शिशु को संक्रमित मां से फैल सकता है।
बचाव- पीलिया ग्रसित होने पर लापरवाही न करें इसका उपचार पीलिया के कारण पर निर्भर करता है, तुरंत चिकित्सक से परामर्श करें जिससे वह जांच कर रोग के कारण जानकर उचित उपचार कर सके।
पीलिया ग्रसित मरीज को कोई भी दवा डॉक्टर के परामर्श बगैर नहीं लेनी चाहिए, क्योंकि अनेक दवाएं लीवर को नुकसान पहुंचा सकती है तथा रोग को जटिल और गंभीर बना सकती है। कुछ प्रकार का पीलिया जैसे वायरस हिपेटाइटिस अपने आप ठीक हो जाता है, इसका लाभ झाड़-फूंक करने वाले उठाते हैं।
वायरस हिपेटाइटिस से बचाव के लिये भोजन, पेय और पानी की स्वच्छता पर विशेष ध्यान रखें, असंक्रमित इन्जेक्शन, औजार का प्रयोग करें, रक्त चढ़वाने की जरूरत होने पर हिपेटाइटिस का जांचा गया रक्त ही चढ़ाया जाए तथा अजनबी से संभोग से बचें या कण्डोम का प्रयोग करें। हिपेटाइटिस ए और बी का टीका उपलब्ध है, लगवा लेने से इस रोग से बचाव संभव है।
साधारणतया पीलिया ग्रसित मरिजों को श्रम से बचना चाहिए या पूर्ण रूप से आराम करना चाहिए। लीवर शरीर का रासायनिक प्रयोगशाला है। अतः लीवर रोगों से ग्रस्त मरीजों को भोजन में भी विशेष ध्यान देने की जरूरत होती है।
संतुलित भोजन का सेवन करें पर वसा की मात्रा कम होनी चाहिए। दवाइयों का सेवन मनमर्जी से कतई न करें। मदिरा लीवर के मरीजों के लिए जहर सदृश्य है, इससे बचें।
- डॉ मधूसूदन व्यास -- पीलिया में आयुर्वेदिक औषधीय बहुत ही कारगर हे | श्वेत या क्षार पर्पटी १/२ ग्राम+हजरल यहूद भस्म १/४ ग्राम +ग्लूकोस+पानी =दो या तीन बार एवं कायनेतोमयिन (kynetomine) टेब जे&जे डिशेंन २-२ गोली दो या तीन बार | चिकनाई और नमक रहित भोजन करने से जल्दी ही रोग नष्ट हो जाता हे | यकृत भी बलवान बनता हे|