आयुर्वेद द्वारा संभव है, यकृत के रोगों की चिकित्सा?
मुंह से गंदी बदबू आना,
काले घेरे या थकान भरी आंखें,
पाचन तंत्र में खराबी,
त्वचा पर धब्बे,
गहरे रंग का मूत्र ,
आंखों में पीलापन,
मुंहु में कड़वाहट,
पेट पर सूजन जैसे लक्षणो से आसानी से समझा जा सकता हे की लीवर खराब हो रहा है।
खराब लीवर की चिकित्सा से पहिले जानना होगा की लीवर के रोग कोन कोन से हें ताकि उनके अनुसार चिकित्सा की जा सके।
ये रोग एकदम से होने वालों को एक्यूट, और धीरे धीरे लंबे समय में होने वाले रोगों को क्रोनिक कहा जाता है, होते हें। एक्यूट रोग लंबे समय तक रह कर क्रोनिक लीवर रोग पैदा करते हें।
इसी प्रकार से यकृत के रोग भी कुछ दवाओं या शराव (अल्कोहल) आदि के लंबे समय तक सेवन से होने वाला लीवर रोग विश्व में सबसे अधिक देखा जाता है इसमें लीवर क्षति ग्रस्त होकर सिकुड़ जाता है, इस स्थिति को सिरोसिस कहा जाता है।
यह यकृत रोग तीन स्तर पर पहिले फेटी और सूजन वाला, दूसरा अल्कोहलिक हेपेटाइटिस और अंत में तीव्र मारक सिरोसिस तक पहुँचता है।
संक्रामक लीवर रोग लीवर में होने वाले कुछ रोग लीवर और शरीर की प्रतिरोधक शक्ति पर हावी होकर किसी वाइरस के संक्रमण (इन्फेक्शन) से भी जिन्हे हेपेटाइटिस ए बी या सी के नाम से जो उनके वाइरस के आधार पर दिया गया है होते हें।
हेपेटाइटिस ए वायरस जो की मल और दूषित पानी के माध्यम से फैलता है, और यह एक एक्यूट या गंभीर क्षति (लीवर डेमेज) उत्पन्न करता है।
तीव्र यकृत संकर्मण होने पर प्रारम्भिक लक्षण पीलिया रोग (जोंडिस) जैसे अर्थात,
बुखार,
मतली या उल्टी जैसे मिलते हें जो बाद में लीवर फेल होने जैसी स्थिति बना सकते हें।
हेपेटाइटिस बी और सी वायरस किसी को वाइरस से संक्रमित ब्लड ट्रांसफुजन (रक्त आधान), इन्फेक्टेड निडिल से इंजेक्शन देने आदि माध्यम से यह यकृत रोग होता है, जो लंबे समय तक संक्रमित रहने लीवर कैंसर उत्पन्न कर सकता है।
हेपेटाइटिस ए को रोकने के लिए वेक्सिन(टीका) उपलब्ध है, पर अभी हेपेटाइटिस बी और सी का वेक्सिन उपलब्ध नही है।
मेटाबोलिक या अन्य कारण
जो व्यक्ति कभी शराब नहीं पीता, फिर भी उसे अन्य कारणों से जैसे डिब्बाबंद संरक्षित पदार्थ, ड्रिंक्स, फल और साग-सब्जियों में उन्हे खराब होने से बचाने हेतु मिलाये गए विषेले रसायनो, ड्रग्स या दवाओं, आवश्यकता से अधिक मात्रा में घी तैल या चर्बी युक्त खाद्य खाना, अपथ्य (न खाने योग्य) या मिथ्या-आहार (अनाबश्यक चाट पकोड़ी, फास्ट फूड, अति मांसाहार आदि) से लीवर में अतिरिक चर्बी जमा हो जाने से अथवा डाईविटीज, मोटापे से ग्रस्त, या अधिक कोलेष्ट्रोल जमा हो जाने पर लीवर डिसिज (नॉन अल्कोहलिक) हो सकती है।
कुछ लोगों में जींस के कारण (उनके पूर्वजों से विरासत में) लीवर में लोह तत्व या आइरन अधिक जमा होने से हेमोक्रोमेटोसिस (रक्तवकर्णता) के कारण सिरोसिस(लीवर पर सूजन/ डीजनरेशन(अपघटन), डेमेज) होने लगता है, जिससे लीवर फैल होने का खतरा बढ़ जाता है।
सामान्य परिस्थितियों में लीवर स्वयं शरीर में तांबे की मात्रा को नियंत्रित कर लेता है, परंतु लीवर में यदि कापर बहुत ज्यादा जमा हो जाए तो विल्सन रोग जो की बच्चों को अधिक प्रभावित करता है, हो सकता है। यह भी लीवर सिरोसिस और लीवर फैल होने के कारणों में जींस से विरासत में मिला लीवर रोग है।
आटोइम्युन हैपेटाइटिस- कभी कभी शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली गलती से लीवर की कोशिकाओं को दुश्मन समझ कर उस पर आक्रमण कर देते हें, यह अधिकतर पुरुषों की तुलना में महिलाओं में अधिक देखा जाता है।
गाल ब्लेडर से लचीली नालियों के माध्यम से पित्त आगे जाता है, किसी कारण वश उनके कठोर हो जाने या पथरी से या ज्वर, पीलिया आदि में सूजन के कारण पित्त(बाइल) प्रवाह कम या बंद हो जाने से भी लीवर रोग हो जाता है।
सभी लीवर के रोगों में प्रारभिक लक्षण जैसे मिचली, उल्टी आदि के अनदेखा करते रहने पर पेट के दाहिने ऊपरी हिस्से में लीवर के स्थान पर दर्द होने लगता है, बढ़ता हुआ लीवर हाथ के स्पर्श से एक कठिन अंग के रूप में जाना जाने लगता है। दर्द का कारण पित्त नली में रुकावट के कारण होता है। पेट पर सूजन को महसूस किया जा सकता है।
रुकावट हो जाने से बाइल (बिलीरुबिन या पित्त) खून में पहुचने लगता है इससे नाखून, त्वचा (स्किन) आँखों में पीलापन, दिखने लगता है, रोगी को सामान्यतः कमजोरी, थकान, वजन घटाने और भूख की कमी के लक्षण के साथ यकृत रोग का प्रारम्भ हो जाता है। सामान्यत: मल का रंग हलका पीला होता है, इसका कारण पित्त (बाइल) के आंतों में जाकर खाना पचाने के कारण होता है, लीवर के रोग में पित्त नली के अवरोध से उसके खून में पहुचने से मल का रंग पित्त न मिलने से सफ़ेद सा होने लगता है।
लीवर सिरोसिस होने पर शरीर पर खुजली जो त्वचा के नीचे पित्त लवण की जमा होने के कारण होने लगती है। शरीर पर चोटी सी रगड़ से खून बहने की स्थिति होने लगती है। मामूली चोट से भी थक्के के निशान त्वचा पर बनने लगते हें।
पुरुषों में सेक्स हार्मोन के असंतुलन से स्तन की वृद्धि, नपुंसकता (कुछ पुरुषों में) भी क्रोनिक लीवर सिरोसिस में देखा जाता है।
लीवर में अमोनिया बढ़ सकती है जो खून के साथ मस्तिष्क में जाकर उसे प्रभावित कर सकती है। यही बात रोगी को कोमा में ले जा सकती है।
पेट के त्वचा में पानी भरने (तरल पदार्थ) से जलोदर एसाइटिस होने लगता है।
शरीर की मांसपेशियों को प्रोटीन न पच पाने से पर्याप्त पोषक तत्व की कमी से कांतिहीन और धीरे धीरे कार्य में अक्षम होने लगतीं हें।
आंतों को खून देने वाली पोर्टल वेन्स में उच्च रक्तचाप (हाई ब्लड प्रेशर) होने से मलाशय में खून बहने से उल्टी और दस्त में खून आने लग सकता है। मल में यह खून काले रंग का होता है।
चिकित्सा
यकृत रोग उपचार में बीमारी के आगे बढ़ने से रोकना, रोग के लक्षणों से होने वाले कष्टों से राहत, अब तक हो चुकी हानी की भरपाई, और कंप्लीकेशन्स से बचना जिनके कारण जीवन के लिए खतरा हो गया हो तो उसे दूर करना ही चिकित्सा का लक्ष्य होता है।
लीवर के रोगों में भी अन्य की तरह रोग के कारणों, जैसे शराब, दवाएं, आदि से बचना प्राथमिकता होती है।
इसके बाद दूसरी सबसे बड़ी भरपाई होती है एक स्वस्थ आहार और नियमित व्यायाम द्वारा, विशेष रूप से क्रोनिक लीवर बीमारी अधिक महत्वपूर्ण होती है।
विशिष्ट यकृत रोग की चिकित्सा के लिए विशिष्ट थेरेपी जिनमें, जैसे वायरल हैपेटाइटिस में कुछ एंटी वायरल एजेंट और संक्रमण की चिकित्सा जरूरी होती है।
यदि हायजीनिक स्तिथियों (मल और दूषित पानी) पर नियंत्रण नहीं रखा जा सकता, तो ही हेपेटाइटिस बी को रोकने के लिए एक टीका लगवाना उचित है, अन्यथा इसकी जरूरत नहीं।
हेपेटाइटिस बी और सी के लिए कोई टीका नहीं है पर कुछ अनजान, और व्यवसायी धंधेवाज ए के टीके को ही बी और सी के लिए बताते हें।
गाल स्टोन या पित्ताशय की पथरी के लिए कुछ आयुर्वेदिक दवाए कुछ सीमा तक लाभकारी है पर वर्तमान सर्जरी (लेप्रोस्कोपिक) अच्छी है। पुनः न हो इसके लिए आयुर्वेद की शरण ली जा सकती है।
लीवर के कैंसर में विशिष्ट कैंसर रोधी दवाओं के कैंसर के इलाज के लिए उपयोग किया जा सकता है। रोगियों को कीमोथेरेपी, रेडिएशन थेरेपी और कुछ रोगियों में भी यकृत प्रत्यारोपण कर छुटकारा संभव है।
कोप्लीकेशन्स जैसे रक्त बहना, आदि की चिकित्सा रक्तचाप नियंत्रण और आयुर्वेदिक ओषधियों या अन्य पेथियों के द्वारा की जा सकती है।
सिरोसिस के अगले चरण में होने वाले जलोदर (एसाइटिस) जिसमें पेट के ऊपरी भाग में पानी एकत्र हो जाता है, जिससे पेट पर सूजन, निचले अंगों (पैरो) सूजन आ सकती है के लिए एकत्र तरल पदार्थ का नियमित रूप से हटाना, भोजन में नमक और तरल पदार्थ पर प्रतिबंध और मल मूत्र के साथ तरल पदार्थ उत्सर्जन में वृद्धि करना चिकित्सा है।
आयुर्वेद चिकित्सा में पंचकर्म द्वारा शरीर संशोधन, विरेचन बस्ती आदि द्वारा लीवर के रोगों सहित जलोदर का भी उपचार संभव है। लगभग हर बड़े शहर में यह चिकित्सा उपलब्ध है, पर आवश्यक है की इस चिकित्सा हेतु किसी इन्डोर आयुर्वेदिक हॉस्पिटल में ही पूर्ण सक्षम विशेषज्ञ की देखरेख में ही चिकित्सा की जानी चाहिए।
सामान्य रूप से कई आयुर्वेदिक ओषधियाँ के द्वारा लीवर के रोगियों की चिकित्सा की जा सकती है। इसके लिए कुशल शिक्षित वैध्य का परामर्श लिया जाना ही लाभप्रद होगा। केवल अनुभव के आधार पर चिकित्सा करने वाले वैध्य से चिकित्सा कराना उचित नहीं।
पीलिया रोग या जोंडिस के लिए हम स्वयं जिम्मेदार?
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4 टिप्पणियां:
I am 64 years old suffering from liver disease, sometimes i feel vomiting and pain in my stomach. Doctor said to transplant liver so i am too scared. Please help me, tell me what to do
लीवर रोगियों के लिये बहुत महत्वपूर्ण जानकारी दी धन्यबाद।
Thanks sir aap ke dwara di gayi jankari she jiwan ki bachat hogi
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