ब्राह्ममुहूर्त में जागना -
"ब्राम्हे मूहूर्त उत्तीष्टेत् स्वस्थो रक्षार्थमायुष:॥" चरक सूत्र
ब्राह्ममुहूर्त अर्थात सूर्योदय से पहिले रात्रि की अंतिम प्रहर(4-4 घंटे के तीन प्रहर) -चरक] में जागना अर्थात् सूर्योदय के पहिले अपनी आवश्यकता ओर क्षमता के अनुसार प्रतिदिन सो कर उठ जाना चाहिए। अंतिम प्रहर से पूर्व जगाना भी हानि कारक होगा। वर्तमान में हमारे युवक युवती पढ़ाई के नाम पर रात देर तक पढ़ते रहते हें इससे वे देरी तक सोते हें। यह हानि कारक होता है।
- वर्तमान समय में सूर्योदय के पूर्व किसी भी समय उठ जाना अच्छा है।
- अतः सूर्योदय से पूर्व सॉकर उठ जाना, ओर रात्रि में लगभग दस साढ़े दस बजे तक सो जाना ही स्वस्थ्य के लिए उचित है।
दिन चर्या में अगला विंदु शरीर चिंता का है। अक्सर इसे बढ़ी ही जल्दवाजी मेँ निवटा दिया जाता है।
- इसके पश्चात "उष:-पान" अर्थात प्रात: पर्याप्त मात्रा में उपयोगी जल या पानी पीना। इसका अर्थ है, मोसम के अनुसार उष्ण, शीतल, या सामान्य जल, ओर उसकी मात्रा निश्चित करना।
रात्रि के समय शारीरिक प्रक्रियाओं में शरीर का अधिकाश जल प्रयुक्त हो चुका होता है। मूत्र के रूप में वह पानी उसमें घुली गंदगी, एसिड, अमोनिया, आदि पदार्थों के साथ निकाल दिया जाता हे इससे जलियांश की कमी हो जाती है, जलियांश की कमी के कारण मल (शोच) की सहज प्रवृत्ति नहीं होती, ओर दुर्बलता भी प्रतीत होती है, इसिकी पूर्ति यह "उष:-पान" करता है। एक सामान्य वयस्क व्यक्ति को इसकी पूर्ति लगभग एक लीटर पानी से होती है, अतः इस मात्र में पानी पी लेने से मल- मूत्र की प्रवृर्ति सुगम हो जाती है, मल- मूत्र का त्याग यदि अच्छा हो जाए तो स्वयं को ही जैसे "सब कुछ अच्छा" लगने लगता है।
- बाह्य शरीर की चिन्ता अर्थात मल मूत्र त्याग के पश्चात, दंतवन (मंजन पेस्ट) , जिव्हा निरलेखन (जीभ गला साफ करना), हाथ पैर मुह साफ करना या धोना, अभ्यंग (तैल मालिश) व्यायाम, ओर सूर्य दर्शन करना इसका अर्थ है घूमने जाना, वापसी में स्नान (नहाना) करना आदि यही सब शरीर चिन्ता के अंतर्गत आता है।
- यही पूरी प्रक्रिया संध्या काल में भी किए जाने का विधान बनाया गया था। ताकि दिन भर की धूल, पसीना, जैसा शारीरिक स्वच्छता ओर ध्यान आदि द्वारा अपने क्रिया-कलापों का पुनरावलोकन कर आगामी योजना बनाई जा सके के लिए संध्या-पूजन, प्राणायाम आदि जैसा कर्म सम्मलित किया गया।
प्राचीन काल में उपलब्धता के अनुसार नीम बबुल आदि की दाँतोन से दांत साफ करने को कहा गया था, वर्तमान में उपलब्ध ब्रश से मंजन पेस्ट करना भी सही होगा।
सिर से पैर तक सारे शरीर अभ्यंग या मालिश करने से शरीर की रुक्षता या सूखापन हट जाता है, ताजगी प्रसन्नता का अनुभव होता है, चर्म रोगों ओर शरीर पर स्थिक परजीवी/जीवाणु/ विषाणु आदि से अनजाने ही छुटकारा मिल जाता है। व्यायाम से रक्त का संचार बढ़ता है। व्यायाम को आचार्यों ने शीत ऋतु में बलार्ध अर्थात् जितनी शक्ति हो उससे आधा, एवं ऋतु गर्मी में ओर भी कम व्यायाम करने के लिए निर्देशित किया है। अधिक व्यायाम भी हानिकारक होता है। रोगी, गर्भणी बालक आदि को यथायोग्य अलग निर्देश हें।
- अक्सर या अधिकतर व्यक्ति शाम को शोच नहीं जाते, पर यह जानना आवश्यक हे कि जब हा दो बार भोजन करते हें तो दो बार मल त्याग के लिए भी जाना ही चाहिए। मूत्र वेग को तो त्यागने से कोई रोक नहीं पाता पर मल त्याग अकसर रोकने में सफल रहते हें। यह रुका हुआ मल आंतों में सूख कर जम जाया करता है, ओर कब्ज, कर कई रोगों को आमंत्रित भी करता है। आयुर्वेद में सामान्य व्यक्ति से लेकर रोगी तक, ओर शिशु से लेकर वयोव्रद्ध तक मल प्रवृत्ति पर विशेष ध्यान दिया जाता है।
- अन्य शरीर शुद्धि जैसे, रोम(अनचाहे बाल) नख(नाखून), श्मश्रु (दाढ़ी-मुछ),अधिक न बढ़ाएँ। पैरों, मल-मूत्र स्थान,साफ रखें, प्रतिदिन स्नान, साफ वस्त्र धारण, सुगंधित तैल इत्रादी का प्रयोग करें इससे न केवल स्वस्थ रहेंगे वरन दिन भर जो भी समीप आएगा उसे भी अच्छा लगेगा।
- प्रात: भोजन - स्नानादी से निवृत्त होकर प्रात: कालीन भोजन अर्थात नाश्ते का विधान, आयुर्वेदीय दिन चर्या में बताया गया है। चूंकि इसके पूर्व भोजन एक दिन पूर्व किया गया था अत: अब तक भोजन के पच जाने के कारण शक्ति पाने के लिए इसकी आवश्यकता होती है। इसके बाद दूसरा भोजन शाम को पुनः शरीर साफ करने के बाद सूर्यास्त से पूर्व किया जाना अच्छा है।
- आचरण - आयुर्वेदीय दिनचर्या में आचरण को भी विशेष महत्व दिया गया है। इसका प्रभाव मनुष्य को मानसिक रूप से स्वस्थ रखें का काम करता है। स्मृतियों में इसे ही धर्म कहा गया है। इस प्रकार शरीर शुद्धि के पश्चात अपने दैनिक कामों में, जैसे व्यापार, रोजगार, शिक्षा लेना या देना कृषि,आदि आदि जो भी करते हों वे सद आचरण के साथ करना चाहिए। दिन चर्या में मानसिक स्वास्थ्य के लिए अपने आचरणों को भी चरक आदि समस्त ऋषिगणो ने मान्यता दी है, ओर अत्यावश्यक बताया है, इसे मनुष्य का धर्म भी कहा है।
धर्म शब्द को लेकर राजनीतिज्ञों ने बढ़ा हँगामा मचाया हुआ है। वास्तव में हम सबका धर्म है की सुख देने वाले अपने उपकारक पदार्थों की रक्षा करें। सभी प्राणियों की इच्छा होती है की वे "सुख" मिले, अत: उनकी सतत् कोशिश सुख पाने के लिए ही होती है। सुख की प्राप्ति धर्म के विना हो नहीं सकती, सुख के ये साधन ही धर्म हें। यही आचरण भी है। इसके अंतर्गत ही निम्न आचरण आते हें, जिन्हे पालन करना ही धर्म है। चरक, वाग्भट्ट आदि ऋषियों ने इसका भी विस्तार से वर्णित किया है। इनसे किसी भी संप्रदाय के विचारों की मर्यादा नहीं टूटती, ओर सभी संप्रदायों में नाम ओर भाषा भेद से इन्ही को अपने आदर्शों में स्थान दिया है।
- अलग अलग ऋतुओं के अनुसार आहार,विहार ओर आचरण थोड़ा बहुत अलग होता है। अगला लेख ।
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