“संसर्जन क्रम” आयुर्वेदीय आहार
व्यवस्था -
शरीर की एक पुनर्निर्माण या पुनर्जनन की प्रक्रिया है!
पंचाकर्मादी, किसी बड़े रोग की चिकित्सा परहेज के बाद अथवा व्रत-उपवास आदि के बाद, प्रत्येक को चाहिए की "संसर्जन क्रम" अपना कर, जीवन भर स्वस्थ्य आहार, आचरण, और विहार (घूमना, व्यायाम, योग, स्वस्थ्य चिंतन, सदाचरण आदि) बनाये | जिन लाभों के लिए उसने पंचकर्म या अन्य चिकित्सा करवाई थी वह लाभ उसे पूरा मिल सके और पुन: कई रोगों आदि का कष्ट दुबारा न उठाना पड़े| यदि आयुर्वेद के इन नियमों का पालन नहीं किया गया तो सारी कोशिश व्यर्थ हो जाया करती है|
पंचकर्म के बाद व्यक्ति का शरीर एक
शिशु के समान हो जाता है, अब उसे पुन: जिस रूप में ढालना हो ढाला जा सकता है,
खाने, पीने, रहने, सहने, आदि समस्त|
विशेषकर संसर्जन क्रम के पश्चात् यदि पुन: पूर्व की तरह मिथ्या और अनावश्यक
आहार-विहार या मिथ्याहारविहार, शुरू कर दिया जाये तो प्रारम्भ में तो पाचन
सम्बन्धी समस्याएं होतीं हें, जो कई नए और पुराने रोगों के प्रकोप का कारण बनती
हें| इस प्रकार सुखी निरोगी “स्वस्थ्य
जीवन” की कोशिश व्यर्थ हो जाती है|
पंचाकर्मादी न भी किया हो तो भी अधिक समय का व्रत, उपवास के पश्चात, भी इस संसर्जन क्रम को करना ही चाहिए, क्यों की पूर्व से रिक्त आमाशय पर अधिक या गरिष्ठ भोजन का दवाव व्यक्ति को कई समस्याएं उत्पन्न कर देगा| देखा जाता है की अक्सर नवरात्री आदि के बाद लोग पूरी पकवान आदि प्रसाद मान कर छक कर खाते हें, और उनमें से अधिकाँश तत्काल बाद से ही अतिसार, कब्ज, आदि उदर रोगों के शिकार हो जाते हें, और ये समस्याएं बड़े रोगों का कारण बनतीं हैं|
संसर्जन क्रम:-
पंचकर्म
(वमन/विरेचादी) से शुद्ध शरीर वाले व्यक्ति को उसी दिन सायं या अगले दिन प्रात:
भूख लगने लगती है| यदि इस समय उसे गरिष्ठ भोजन दिया जाये तो वेसा ही होगा जेसा
सुलगती आग पर बहुत अधिक इंधन डाल दिया जाये तो वह बुझ जाएगी, इस आग को सुलगाने के
लिए धीरे धीरे थोडा शीघ्र जलने वाला इंधन डाला जाता है और जब आग बड़ने लगे तभी अधिक
इंधन डालते हें, उसी प्रकार पाहिले जल्दी पचनेवाला और कम मात्रा में खाना दिया
जाना चाहिए, फिर जठराग्नि या पाचन क्षमता बड़ने के साथ-साथ अधिक खाना दिया जाये|
संस्कृत शब्द संसर्जन का अर्थ सम्मिश्रण, छोड़ना,
परित्याग करना, खाली करना होता है| इसके अनुसार पूर्व के अनुसार भोजनादि का
परित्याग कर नई आहार व्यवस्था को लागू करना होता है| इसे ही (संसर्जन क्रम)
पुनर्निर्माण की प्रक्रिया (Regeneration or Reconstruction
process) भी कहा जा सकता है| यह पाचन क्षमता वृद्धि अनुसार लगभग सात
दिन की हो सकती है| इस समय के बाद अग्नि सामान्य होने पर शेष जीवन की आहार-विहार
व्यवस्था बना लेना चाहिये| जो अनावश्यक खाने पीने ओषधि लेने आदि आदि से रोग कष्ट
और समस्याएं हुईं थी, उनसे सबक लेते हुए आगामी जीवन भर का क्रम बना लेना चाहिए|
इसमें चिकित्सक, या वर्तमान आहार विशेषज्ञ (Dietician) की
मदद भी ली जा सकती है|
आयुर्वेद ग्रंथों में इसके लिए एक
क्रम निर्धारित किया है, हमारे अनुभव में आया है, की हजारों वर्ष पूर्व मनीषियों
की यह सोच आज भी पूर्व की तरह प्रभावशाली लाभकारी, और स्वीकार करने योग्य है|
इस संसर्जन कर्म या क्रम के अंतर्गत
शरीर शुद्धी प्रवर, मध्य, और अवर हो सकती है| भोजन के समय भी प्रात:काल और सायंकाल
दो होते हें|
आचार्यों ने पंचकर्म से शोधित शरीर
वाले व्यक्ति के लिए आहार-भेद छह बताये गए हें|
उसके अनुँस्र वर्तमान में हम क्रमश:
पेया (soup), विलेपी (soup), अकृत यूष unseasoned, कृत यूष, क्रशरा, अर्धाहर, अंत में पूर्णाहार तक पहुँचते हें| आच्र्यों
ने अमीषाहारियों (non-vegetarians) के लिए क्रशरा, और
अर्धाहार (Half diet)- के स्थान पर अकृत मांसरस और कृत मांसरस के लिए
भी बताया गया है|
1.
पेया (Drink) – पीने योग्य जों गेहूं चावल आदि से बनाया खाद्य, इसके लिए उदाहरण हेतु
‘एक कटोरी 50 ग्राम शाली चावल या गेहूं दलिया में 14 गुना पानी दल कर पकाएं फिर
ऊपर का तरल भाग’ पेया होगा]
2.
विलेपी (soup) एसा खाद्य जो पेया से कुछ ही गाढ़ा और चाटने योग्य हो, पकाते समय चम्मच
से लिपटने वाला हो| जैसे दलिया, चावल आदि अनाज (मोटा कुटा) कर को 4 गुना जल के साथ
आंच पर पकाते है। गुण - यह हृदय के लिए हितकारी, भूख, प्यास
मिटाने वाला पित्तनाशक है । एक कटोरी (50 gm चावल या डालिए में 6 गुना पानी मिलाकर
पकाकर खाना|
3.
अकृत युष (unseasoned thick soup) - गेहूं, दाल आदि को
14 गुने पानी में पकाकर बिना बघारा (छोंक) वाला उसका तैयार तरल भाग.
4.
कृत युष (Seasoned thick soup) - युष को गो घृत, लोंग कालीमिर्च जीरा का छोंक (Seasoning
with spices बघार) लगाना|
5.
क्रशरा यवागू – दाल+दलिया, या दाल +चावल, मांस, (आदि) की बनाई थोड़ी गाढ़ी खिचड़ी, शोरबा आदि खाद्य |
6.
अर्धाहर (Half diet)- सामान्यत: खाए जाने वाले
सुपाच्य सादा भोजन खाने की मात्रा से आधा भोजन लेना|
7.
पुर्णाहार - सामान्य शरीर के लिए
आवश्यक मात्रा में संतुलित आहार (भोजन) लेना|
विरेचन के बाद यदि रोगी की प्रवर शुद्धी हो गई
हो तो छह दिन प्रात; सायं सहित बारह अन्नकाल, माध्यम शुद्दी पर आठ अन्नकाल चार
दिन, और अवर शुद्धि होने पर 4 अन्नकाल दो दिन क्रमश पेया, विलेपी, अकृतयुष,
कृतयुष, क्रशरा अर्धाहर देते हुए पूर्ण भोजन पर आना चाहिए|
सामान्य परिस्थितियों में प्रवर
शुद्धि मिलने पर हम निम्नानुसार 7 दिन का कुल 14 काल का संसर्जन क्रम चुनते हें|
जिस दिन
वमन विरेचन दिया उस दिन को प्रथम दिन मान कर-
प्रथम दिन-
प्रात: कुछ नहीं (या चिकित्सक निर्देश अनुसार),
सायं –पेया,
द्वितीय
दिन प्रात: - पेया, सायं विलेपी;
तृतीय दिन-
प्रात: विलेपी , सायं अकृत यूष ,
चतुर्थ दिन
- प्रात: अकृत यूष, सायं कृत यूष,
पंचम दिन
-प्रात: कृत यूष, सायं क्रशरा,
षष्टम दिन
प्रात: क्रशरा, सायं अर्धाहर,
सप्तम दिन
प्रात: अर्धाहर, सायं से फिर रोज प्रतिदिन यदि अन्य बस्ती आदि पंचकर्म नहीं किया
जा रहा हो तो पुर्णाहार देते हें|
यह नियम भी
कोई सुनिश्चित नहीं होता| रोगी की पाचन क्षमता का आंकलन करके घटाया या बडाया जा
सकता है| इसी प्रकार से दलिया चावल दाल मांस रस आदि खाद्य द्रव्यों में भी देश,
काल परिस्थिति, और दोष प्रबलता के अनुसार परिवर्तन किया जा सकता है|
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