Virechana
- Panchakarma :- Ayurveda miraculous healing method - for the painful arduous
diseases.
परिभाषा:- गुदा आदि अधो
मार्गों से प्रकुपित दोषों को निकलने की प्रक्रिया विरेचन कहलाती है| यह पित्त दोष को निकलने के लिए एक महत्वपूर्ण चिकित्सा है । विरेचन से
केवल अन्त्रों और मलाशय से मल और पित्त दोष ही नहीं निकलते वल्कि सम्पूर्ण शरीर से
सूक्ष्म स्त्रोतस एवं स्त्रोतस मल (कोशिकाओं में जमा मल) भी निकल जाता है|
तत्र दोषहरणा ……… अधोभागम विरेचन संजनकम.
उभयम व शरीरमलविरचनात विरेचन संजना लभते” च. के ¼
“विरेचनम् पित्तहराणां श्रेष्ठम .... || च. सु. 25/40
किस व्यक्ति या रोगी को विरेचन दिया जा सकता है किसको नहीं?
विरेचन योग्य (Indications):-
1. ज्वर (Fever), 2. कुष्ट रोग (Skindisorders),
3. प्रमेह (UTI), 4. अर्श (Piles), 5. भगंधर (Fistula in
ano) अर्बुद (Tumour),
7. ग्रंथि (Glands)
8. विसर्प (Eryseplas), 9. पांडू (Anaemia), 10. उदावर्त (Flatulence),
11. श्वास (Asthama), 12. कास (Cough),
13. कामला (Jaundice), 14. अपस्मार (Epilepsy),
15. उन्माद (Insanity),16. वातरक्त (Gout),
17. उदर रोग जलोदर (Ascitis) ,18. स्तन्य दोष (Vitiation of
Breast Milk), 19. शिराशुल
(Headache), 20. कृमि कोष्ट (Worms infection), 21. अरुचि (Anorexia), 22. श्लीपद (फायलेरिया),
23. योनी दोष
विरचना
अयोग्य CONTRA‑INDICATION:‑
1. अल्पाग्नी (In poor
Appetite), 2. लंघित (Fasting) ,3. जीर्ण रोगी
(Indigestion), 4.नवज्वरी (Recent Fever), 5. गुद भ्रंश (Prolapse of rectum) , 6. मद्य अतियोग (Alcoholism),
7.अतिरुक्ष (Over dehydrated), 8.क्रूर कोष्टी
(Constipated), 9.अतिक्रश (Weak, Emaciated), 10.गर्भंणी (Pregnant-woman),
11. बाल (Children),12. वृद्ध (Aged
person),13. क्षय रोगी (Lung T.B), 14. ह्रदय रोगी (heart
diseases) ,15.भयभीत (Fear person), 16. अतिसार
पीड़ित (diarrhoea),17. पिपासित (Thirst), 18.मैथुन प्रसक्त (Interest
in coitus),19. अध्ययन प्रसक्त (Interest in studies),20. व्यायाम प्रसक्त (Interest in exercise),21. चिंता / तनाव प्रसक्त (interest
in thinking/ Stress)
विरेचन कर्म प्रक्रिया (VIRECHAN KARMA PROCEDURE)
पूर्व कर्म (Pre Therapeutic
measures):-
1. संभार संग्रह (Collection of material)
2. आतुर परीक्षा (Examination of patient)
3. आतुर सिद्धता (Preparation of patient)
4. ओषधि एवं उनकी मात्रा का चयन (Selection of Drug and Dose)
संभार संग्रह (Collection
of material):-
1. ओषधि घृत 500 ग्राम से 1 kg {
रोगानुसार)
2. गो दुग्ध 200 ml स्नेहपान के समय प्रतिदिन
3. विरेचन द्रव्य (Virechana drug)
a-
एरंड तेल (Castor oil) 50 ml
b-
इच्छाभेदी रस, निशोथ, आरग्वध,
कुटकी, बाल हरीतकी, आदि
कोष्ट अदि अनुसार,
c-
अति अतिसार निरोधक (Anti diarrhoeal drugs) संजीवनी, कुटज घन वटी, कर्पूर
रस आदि.
d-
दीपन ओषधि (digestive & peptic drugs) :-
शंख वटी, हिंग्वाष्टक, शिवाक्षार पाचन
चूर्ण, आदि
e-
अत्यायिक ओषधि (emergency drugs):- पिच्छा
बस्ती द्रव्य,मोचरस, कुटज चूर्ण,
मयूर पिच्छ भस्म, आदि
आतुर परीक्षा (Examination
of patient)
1. विरेचन
योग्य रोगी का चयन. Virchana
yogya patient
2.
रोगी की दोष, ओषधि, देश, काल, सात्मता अग्नि, सत्व, वायु,
बल, की परीक्षा.
3. परिक्षण Investigations
– रोगी की स्थिति जानने निम्न जाँच किये जा सकते हें|
ब्लड सुगर (Blood Sugar, SGOT[1], Cholesterol,
SG PT, SGOT, Lipid profile, Blood urea, Urine, Stool
exam. X-ray chest.
5. आतुर सिद्धता (Preparation of patient)
परीक्षण उपरान्त रोगी की अग्नि वृधि पश्चात्
सम्यक स्नेहन होने तक लगभग 3 से 7 दिन स्नेह पान कराया जाये, यह रोग स्तिथि और रोगी की प्रकृति, पर निर्भर है|
स्नेह द्रव्य घृत, तेल, दूध
आदि चयन किया जा सकता है|
स्नेहपान का समय प्रात: 8 am
to 10 am. उचित है. स्नेह
परतिदिन बढ़ाते हुए करना चाहिए|
जैसे:- प्रथम दिवस I st
Day : 150 ml milk + 50 to 100 ml ghrita [केवल घृत भी दिया जा सकता
है]
द्वितीय दिवस 2 nd
Day : 150 ml milk + 100 to 150 ml ghrita
तृतीय दिवस 3 rd Day : 150 ml milk + 150 to 200 ml ghrita
इसी तरह से सम्यक स्नेहन (Saturation) तक बढ़ाते हुए, सात्मता अनुसार जीर्यमान[2] और
जीर्ण[3]
लक्षणों मिलने तक स्नेहपान कराया जाये|
इसका ज्ञान गुरु कृपा एवं अनुभव से होता है|
रोगी की प्रतिदिन स्नेहपान की तारीख समय, और मात्रा अंकित करें, स्नेह्पान के बाद शरीर
में उत्पन्न होने वाले लक्षणों का समय अंकित करें, प्रतिदिन
रोगी के शोच का समय, नींद आने का समय, पानी पीने की मात्रा की जानकारी दर्ज करें, इससे
रोगी की प्रत्येक स्थिथि पर नियंत्रण रखा जा सकेगा, और पूर्ण
कर्म ठीक हो सकेगा| सामान्य न होने पर व्यवस्था ठीक करने|
रोगी को निर्देश दें की कभी भी कोई समस्या होने
पर घबराएँ नहीं,
यदि ज़ी मचलाता है तो एक गिलास गर्म पानी में सोंठ+ नीबू रस मिलाकर
पियें| या चिकित्सक से संपर्क करने| प्रतिदिन स्नेहपान के बाद गर्म जल, सोंफ, इलायची रोगी को देने से तात्कालिक अरुचि ठीक हो जाती है|
सम्यक स्निग्ध लक्षण मिलने तक रोगी को विरचन के अनुकूल लघु भोजन,
दोनों समय, एवं पीने उष्ण जल दिया जाये|
रोगी का एक या दोनों समय तिलादी तेल से सर्वांग अभ्यंग और स्वेदन भी
करना चाहिए| ताकि दोष कोष्ट में आ जाएँ|
विरेचन की प्रक्रिया के समय स्नेहपान से संसर्जन कर्म तक रोगी को नहीं
करने योग्य (Don’ts)[4] कार्य,
और करने योग्य [5] कार्य बताना चाहिए|
विरेचन (प्रधान) कर्म (Therapeutic
procedure):-
रोगी के पूर्व कर्म के बाद विरेचन ओषधि
प्रात:काल के समय में देना चाहिए| विरेचन से पूर्व रोगी का मनोबल
बढाएं, आश्वासन देवें और मानसिक रूप से तैयार कर लेना चाहिए|
चयनित एवं एक दिन पूर्व संध्या से तैयार विरेचन
द्रव्य आश्वस्त कर मंत्रोत्चारण के बाद दिया जाना चाहिए| इससे रोगी का मनोबल और विश्वास बढता है, और
प्रक्रिया ठीक होती है|
हमारे विचार से मन्त्र एसा पीडीए जाना चाहिए जो
भाषा ज्ञान अनुसार समझ आ जाये, होंदी भाषी क्षेत्रों के लिए
हमने यह मन्त्र[6]
लिखा है {देखें नीचे नोट (औषधि पान मन्त्र )}, हम इसके साथ प्रक्रिया करवाते हें|
विरेचन के लिए ओषधि योग:- सहिताओं में और चिकित्सक विशेष के अनुभवों के
आधार पर कई विरेचन योग हो सकते हें, हम निम्न योगों का
प्रयोग सफलता पूर्वक कर चुके हें| मात्रा रोगी की आयु,
क्षमता और क्रूर कोष्ट (hard bowels), मृदु कोष्ट (Soft bowel) आदि, के अनुसार निश्चित की जाना चाहिए| हमने सामान्य
मात्रा निम्न दर्ज की है|
1. निशोथ
20 gm+बाल हरड 20 gm,+ आरग्वध 20 gm,+ कुटकी 20 gm, इन सभी द्रव्यों को 500 gm पानी में एक दिन पूर्व भिगो कर रख दें, प्रात:
चतुर्थांश क्वाथ करें, पान के पूर्व 30 ml एरंड तेल मिला कर पान करायें| नोट –कुटकी तिक्त कडुवी होती है इसलिए हम कुटकी घनसत्व की 300 mg की गोली पान के समय देतें है, इससे कडुवाहट नहीं
होती|
2. एरंड
तैल 30 से 50 ml
+इच्छा भेदी रस 250-500 mg, मिलकर दें|
3. निशोथ
चूर्ण 50 gm+
कटुका या सोनामुखी आदि से कोई एक ओषधि 200 ml जल
में मिलकर क्वाथ करें ¼ शेष रहे तब इच्छा भेदी रस
250 से 500 mg तक गोली के साथ देवें|
4. सुकुमार
स्त्री/ पुरुष / मृदु कोष्टी के लिए क्वाथ योग बिना इच्छा भेदी रस के दी जान चाहिए|
5. क्वाथ
तेल आदि सुखोष्ण होना चाहिए|
आतुर निरिक्षण (OBSERVATION
OF PATIENT)
विरेचन ओषधि देने के बाद, कुछ संवेदनशील रोगियों को मतली या उल्टी की अनुभूति हो सकती है, एसा तिक्त (कडवे) खराब स्वाद के कारण होता है, अत:
सोंफ, लोंग, इलायची, दी जा सकती है|
रोगी को पूरी तरह आराम करने देना चाहिए।
अधिकतम एक घंटे में मलोत्सर्ग (रेचन Catharsis)
रोगी की नाडी (pulse), ह्रदय गति
(heart rate), रक्तचाप (Blood
pressure), श्वसन दर (respiration
rate), एवं मल वेग दर्ज किये जाते रहना चाहिए।
जब सम्यक विरेचन (proper
purgation) के लक्षण (clinical symptoms)
दिखने लगें, तब रोगी को पूर्ण विश्राम करने देना चाहिए|
किसी रोग के कारण दस्त लगने (purgation) की तुलना करें तो हम पाएंगे की जहाँ दस्त लगने से कमजोरी पानी की कमी
आदि समस्याएं होती हें वहीँ, सम्यक विरेचन के बाद रोगी
स्वस्थ्य अनुभव करने लगता है, समस्याएं हीन योग, या अति योग के कारण हो सकतीं है| एसा भी तब होता है
जब की पूर्ण विरेचन प्रक्रिया में समस्या या सिधान्तों की अनदेखी या लापरवाही,
परिक्षण और ओषधि आदि निर्णय में कमी-वेशी या भूल हो गई हो|
एसी परिस्थिति में चिकित्सक को धेर्य पूर्वक समस्या समझ कर
उसका निवारण कर रोगी को राहत देना चाहिये|
सम्यक विरेचन लक्षण (clinical
symptoms of proper purgation):-
A-
लेंगिकी (लाक्षणिक Symbolic, according to symptoms)
i-
लघुता (Lightness of the body), ii- इन्द्रिय प्रसन्नता (cheerfulness), iii- स्त्रोतों
शुद्धी (Feeling clarity in heart) , iv- प्रकुपित दोष निर्हरण (Alleviation of vitiated doshas), v–वातानुलोमन (Passing of flatus), vi- अग्नि वृद्धि (Increase of digestion), vii- मन-इन्द्रिय प्रसन्नता (Feeling
happy)|
B-
वैगिकी (according to count):- आयुर्वेद के शास्त्रों में इनका उल्लेख है, हमारा भी
अनुभव है, की यह गणना सटीक और त्रुटिहीन (impeccable) है|
प्रवर
शुद्धि (Best Purification)
|
30
वेग 30 Times
|
मध्यम
शुद्धि (Average
Purification)
|
20
वेग 20 Times
|
अवर
शुद्धि (Lower Purification)
|
10
वेग 10 Times.
|
C-
मानिकी (according to weight) आयुर्वेद संहिता/ शास्त्र उल्लेखित (Ayurveda Code /
scripture mentioned),
प्रवर
शुद्धि (Best Purification)
|
4
प्रस्थ (2600 gm)
|
मध्यम
शुद्धि (Average
Purification)
|
3
प्रस्थ (1950 gm)
|
अवर
शुद्धि (Lower Purification)
|
2
प्रस्थ (1300 gm)
|
D
- आंतिकी (according to end) -
प्रवर
शुद्धि (Best Purification)
|
“कफंताम् विरेचनं” विरेचन के अंत में कफ
निकलना (kapha should be come out at last)|
|
मध्यम
शुद्धि (Average
Purification)
|
कफ
के साथ पित्त का भी होना|
|
अवर
शुद्धि (Lower Purification)
|
वात-पित्त
और कफ तीनो दोषों का पूरी तरह नहीं निकल पाना|
|
पश्चात कर्म (Post
Post Therapeutic measures):-
सम्यक विरेचन के बाद रोगी को शारीरिक और मानसिक
रूप से पूर्ण विश्राम कराना चाहिए| पीने के लिए
सुखोष्ण जल ही देवें, खाने के लिए कुछ भी नहीं दिया जाना
चाहिए, सामान्य आहार संसर्जन क्रम के बाद ही दिया जाता है|
पंचकर्म के बाद व्यक्ति का शरीर एक शिशु के
सामान हो जाता है,
अब उसे पुन: जिस रूप में ढालना हो ढाला जा सकता है, खाने, पीने, रहने, सहने, आदि समस्त| विशेषकर
संसर्जन क्रम के पश्चात् यदि पुन: पूर्व की तरह मिथ्या और अनावश्यक आहार-विहार या
मिथ्याहारविहार, शुरू कर दिया जाये तो प्रारम्भ में तो पाचन
सम्बन्धी समस्याएं होतीं हें, जो कई नए और पुराने रोगों के
प्रकोप का कारण बनती हें| इस प्रकार सुखी निरोगी “स्वस्थ्य जीवन” की कोशिश व्यर्थ हो जाती है|
अत: अब व्यक्ति को चाहिए की जीवन भर स्वस्थ्य आहार, आचरण, और विहार (घूमना, व्यायाम,
योग, स्वस्थ्य चिंतन, सदाचरण
आदि) बनाये रखने का संकल्प ले ले| [पूर्ण लेख देखें:- लिंक -“संसर्जन क्रम” आयुर्वेदीय आहार व्यवस्था - शरीर की एक पुनर्निर्माण या पुनर्जनन की प्रक्रिया है!
]
प्रवर शुद्धि (Best Purification) का लाभ :-
वमन विरेचन अदि पंचकर्म से प्रवर शुद्धि (Best Purification) के पश्चात् रोगी का कोष्ठ एक शिशु के समान हो जाता है, उसकी अग्नि मंद और पाचन क्षमता कम हो जाती है| इसीलिए
इस समय यदि संसर्जन क्रम से खाना न दिया जाये तो अनेक समस्याएं और रोग उत्पन्न हो
जाते हें| रोग निवारण और स्वस्थता का उद्देश्य भी असफल हो
जाता है|
वमन विरेचन के बाद कुछ भी खाने की रोगी की इच्छा
भी होती,
कभी कभी परिवार के स्नेहीजन भावना वश यदि कुछ खिला-पिला दें तो केवल
हानि होती है| अत: सभी को समझाया जाना चाहिए|
जिस रोगी को प्रवर शुद्धि हो जाती है उसमें
निम्न लेंगाकी लक्षण
(according to symptoms) मिलते हें, इनसे जाना
जाता है की रोगी की पंचकर्म प्रक्रिया भली-भांति हो गई है|
शरीर लघुँता (हल्का पन लगना), मन की प्रसन्नता, शिरो लाघवता (मष्तिष्क में
हलकापन), कार्श्य (विरेचन जन्य कमजोरी), दोर्बल्य (दुर्बलता) , काले प्रवृत्ति (मल-मूत्र
उचित समय पर होना), स्वयं अवस्थान
(मल प्रवृत्ति स्वयं बंद होना), ह्रदय शुद्धि, पार्श्व शुद्धि, इन्द्री शुद्धि अर्थात ह्रदय,
सहित सभी स्थानों में स्वस्थता अनुभव, कंठ
शुद्धि (गला ठीक होना या कडवाहट आदि न होना), रोग
का कम होना, भूख लगना, आदि|
इनमें कुछ का ज्ञान तत्काल बाद, और कुछ का ज्ञान एक संसर्जन कर्म बाद चलता है|
व्यापद (जटिलतायें Complications):- कभी कभी अयोग अर्थात
विरेचन कम होना या अतियोग विरेचन अधिक होने पर कुछ जटिल स्थिति बन जाती है|
चिकित्सक को चाहिए की परिस्थिति के मान से उपस्थित समस्या का निवारण
करे| देखें क्या हो
सकता है? आगामी लेख:- Complications of Virechana-विरेचन के व्यापद?
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[1]
- SGOT:
Serum glutamic oxaloacetic transaminase, an enzyme that is normally present in
liver and heart cells. SGOT is released into blood when the liver or heart is
damaged. ... SGOT is also called aspartate aminotransferase (AST).
[2] - जीर्ण
मान लक्षण- सिर
में भारीपन, चक्कर आना, लार आना, सुस्ती, थकान/
या दर्द, प्यास लगना
जलन होना, बेचनी/ अरुचि ,
[3] -जीर्ण लक्षण- उपरोक्त
लक्षणों की समाप्ति - शरीर में हल्का पन, गैस
पास होना, भूख लगना, प्यास
लगना, डकार आना.
[4] - नहीं करने योग्य (Don’ts) कार्य: -1-अधिक समय बेठना, 2. अधिक समय खड़े रहना,
3.ऊँचे या मोटे तकिये (पिलो) का प्रयोग, 4.
अधिक दूरी तक घूमना या चलना, 5- तनाव देने वाली यात्रा,6. मोटर साइकल या पशुओं पर सवारी, 7. दिन में सोन,
8. अधिक या जोर से बोलना, 9. मैथुन या सहवास (coitus),
10. वेगावरोध, (गेस, मल मुत्रादी प्राक्रतिक वेग रोकना) ,11. तेज हवा (exposure
to breeze) में रहना, 12. ठंडे पदार्थ
खाना, 13. धुआं, धूल, धूप आदि में रहना, 14.
शोक, क्रोध, करना, 15. असमय खाना, 16. असंगत (incompatible) खाद्य (खाना) खाना, 17. व्यायाम|
[5]
- करने योग्य कार्य
Do’s - रोगी प्रक्रिया के दोरान निम्न बातों का पालन
करें- 1. पूर्ण चिकित्सा काल (समय) में गरम पानी पीना, 2.
ब्रह्मचर्य का पालन (maintain celibacy), 3. चिकित्सक के
निर्देश|
मिथ्याहार-विहार से, कुपित
पित्त, कफ, वात; शरणागत हूँ, आपकी, करूँ निवेदन तात!!
जय अश्वनी द्वय देव जय, हर
लो मन संताप; नव जीवन की प्राप्ति हो, मिट जाएँ सब ताप!!
जय प्रभु श्री धन्वन्तरी, अमृत
सहित प्रकाश्य; कर दो अमृत
द्रव्य को, होवे कष्ट
विनाश!!
ओषधि के इस पान से, नष्ट होयें सब रोग; काया कंचन सी मिले, पा लूँ जीवन भोग!!
ॐ “धन्वन्तरी देव: नम:” ॐ “स्वाहा”!
समस्त चिकित्सकीय सलाह, रोग निदान एवं चिकित्सा की जानकारी ज्ञान (शिक्षण) उद्देश्य से है| प्राधिकृत चिकित्सक से संपर्क के बाद ही प्रयोग में लें| इसका प्रकाशन जन हित में किया जा रहा है।