क्या? मियादी बुखार आंत्रिक ज्वर
या टाइफोइड अधिकांशत: होता है स्वयं की गलती से!
जी हाँ यह सही है।
केवल मनुष्यों में
सालमोनीला टायफ़ी नामक जीवाणु वाले संक्रमित जल और मल से दूषित खाद्य पदार्थ खाने
से आंतों में पहुँच वहाँ से खून में जाकर तेजी से बढ़ते हें,
और टाइफाइड, आंत्रिक ज्वर, आन्त्र ज्वर, उत्पन्न करते हें।
कुछ व्यक्तिओं
में इसके
कीटाणु तो मिलते हें, पर उन्हे यह रोग नही होता वे अन्य को
रोग फेला सकते हें। एसे लोग रोग संबाहक होते हें।
बचने का रास्ता
यही है की जोखिम भरे
खाने और पानी से बचा जाए दूसरा इसका टीका (वेक्सिन) लगवाया जा
सकता है पर टीके का लाभ अधिक समय तक नहीं रहता
,
बार बार लगवाना जरूरी होता है।
चूंकि ये जीवाणु
अधिकतर सब्जियों, फलों, आदि को गंदे पानी से विक्रेताओं द्वारा धोने पर
फेलते रहते हें। कच्ची साग सब्जियां और फल न खाएं जिन्हें छीलना संभव न हो। सलाद
वाली सब्जियाँ आसानी से प्रदूषित हो जाती है। छीली जा सकने वाली कच्ची सब्जियां या फल खाएं तो
स्वयं उन्हें छीलकर ही खाएं। सब्जी भाजी
प्रयोग से पूर्व उबलते पानी से / फिटकरी के पानी से/ या अन्य जीवाणु नाशक पानी में
मिलकर अच्छी तरह से धोई जाना भी चाहिए।
पीने के पानी को कम
से कम एक मिनट तक उबाल कर पीएं। यदि बर्फ, बोतल के पानी या उबले पानी
से बनी हुई न हो तो पेय पदार्थ बिना बर्फ के ही पीएं। एसे पदार्थ न खाएं जो कि
प्रदूषित पानी से बने हों। अच्छी तरह से पकाए
और गर्म तथा वाष्प निकलने वाले खाद्य पदार्थों में जीवाणु जीवित नहीं रहते। अत वे
ही खाएं। खने के पूर्व हाथ भी साबुन से धो
लें, जीवाणु हमारे हाथों में भी हो सकते हें। छिलके कभी भी न खाएं, उनमें सल्मोनीला छुपा हो
सकता है। जिन दुकानों/स्थानों में खाद्य
पदार्थ/पेय पदार्थ साफ, और ढक कर न रखे जाते हों, कर्मचारी गंदे हाथों से ही काम करते हों, एसी जगह से
कुछ भी लेकर न खाएं और न पीएं।
कैसे जाने की टाइफोइड है।
ज्वर
या बुखार होना - टाइफाइड से ग्रस्त होने पर 103
या 104 डिग्री
फॉरेनहाइट या फिर (39-40 डिग्री सेल्सियस) तक बुखार चढ़ सकता है।
प्रारंभिक
लक्षण में रोगी को 1. सिरदर्द
व बदन दर्द , 2. भूख में कमी , 3.
सुस्ती,
कमजोरी और थकान, 4.
दस्त हो सकते हें, 5.
सीने के निचले भाग और पेट
के ऊपरी भाग पर गुलाबी या लाल रंग के धब्बे (रैशेस) देखे जा सकते हें। इसीलिए
मोतिझरा आदि भी कहा जाता है।
सामान्य जन में यह भ्रांति है, की इसका इलाज नहीं है। यह नीम हकीमो द्वारा फेलाई गई है। कुशल
आयुर्वेदिक चिकित्सक इसकी चिकित्सा कर सकता है।
टाइफाइड का समुचित इलाज नहीं कराने
पर व्यक्ति बेहोश हो सकता है, अथवा अर्ध बेहोशी (अपनी आँखें आधी बंद कर
बिना हिले-डुले पड़ा रहना) में रह सकता है। रोग के दूसरे या तीसरे सप्ताह के दौरान
रोगी में प्रतिरोधक शक्ति से धीरे-धीरे सुधार आना शुरू हो सकता है परंतु यह
लापरवाही खतरा बन सकती है।
साल्मोनीला की अलग अलग प्रजाती द्वारा होने वाला मियादी बुखार टाइफोइड या पेरा टायफोइड हो सकता है, का संक्रमण खाने पीने से पाचन तंत्र द्वारा जरूर है, पर यह पूरे शरीर को प्रभावित करता है। दोनों के रोग लक्षणो की शुरुवात क्रमश: बडते लक्षण ( प्रारम्भ में कम सामान्य जो धीरे धीरे गंभीर होते जाते हें) हौते हें, पेरा टाइफाइड में पहिले दिन से ही (1 से 10 दिन) में जबकी टाइफाइड के लक्षण आमतौर पर 8 से 14 दिन में दिखते हें।
रोग निदान
के लिए वर्तमान में विडाल टेस्ट, एलिसा टेस्ट,
स्टूल कल्चर, आदि के द्वारा जांच करना सभव है।
चिकित्सा
चिकित्सा न करने
पर एक निश्चित समय में जीवाणु के विरुद्ध रोग प्रतिकारक क्षमता ,
से ठीक हो सकते हें,
पर बहुत कमजोरी और कोप्लीकेशन्स होने की संभावना होती है। वर्तमान में एंटीबाइओटिक द्वारा जल्दी ठीक किया
जा सकता है। अधिक कोप्लीकेशन तो नहीं होने पाते, पर
प्रतिरोधक क्षमता में कुछ समय के लिए कमी आ जाती है। रिकवरी में अधिक समय तो लगता
ही है।
आयुर्वेदिक ओषधि रोगी को “
रुद्राक्ष मारीच योग “ 500 से 1000 एम जी तक देने और केवल दूध और मोसम्मी आदि फल
के रस पर रखने से शीघ्र बिना कोंप्लीकेशन के लाभ मिल सकता है। इस ओषधि से आंतों के
साल्मोनीला नष्ट होते हें, जिससे रोग अन्यों को फेलने का
खतरा कम हो जाता है। आयुर्वेद में लघु बसंत मालती आदि अन्य ओषधिओं को भी कुशल
आयुर्वेद चिकित्सक के परामर्श से देने पर रोगी जल्दी ठीक होता है।
एलोपेथिक चिकित्सा में टाइफाइड
पैदा करने वाले साल्मोनेला बैकटीरिया को एंटीबॉयोटिक दवाओं से नष्ट किया जाता है।
पर कुछ मामलों में देखा गया हे की लंबे समय तक एंटीबॉयटिक दवाओं के कारण टाइफाइड
के जीवाणु , एंटीबॉयोटिक दवाओं के प्रति रेजिस्टेंट हो जाते हैं, और दवाए असर करना बंद कर देतीं हें। अत; योग्य
डॉक्टर के परामर्श के अनुसार ही चिकित्सा कराना चाहिए।
रोगी को शरीर में
पानी की कमी न होने पाए, इस हेतु
रोगी को को पर्याप्त मात्रा में पानी और पोषक तरल पदार्थ सतत देना ही चाहिए।
आवश्यकता हो तो सीधे रक्त द्वारा ओषधि देना चाहिए।
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