Irregular Life- What is the point of crying when birds ate whole farm already?
[असंयंमित जीवन -अर्थात फिर पछताए का होत है, जब चिड़िया चुग गई खेत।]
मनुष्य के शरीर ओर मन में शक्तियों का अकूत भंडार भरा हुआ है। इसको बचाया जा सके, ओर उसका सदुपयोग किया जा सके तो अभीष्ट [इच्छित] दिशा में आशाजनक सफलता पाई जा सकतीं हें। इस जानकारी के अभाव में हम अपनी बहुमूल्य शक्तियों का निरंतर अपव्यय करते रहते हें। इन शक्तियों को खोकर खोखला, रुग्ण [बीमार], अशक्त ओर असफल जीवन जीते हुए मोत तक के दिन को पूरे करते हें।
हमारा शरीर ओर मन प्रकर्ति जनित क्रियाओं के माध्यम से अपने-अपने आहार ओर शक्तियों का निरंतर उत्पादन कर सामर्थ भंडार को भी निरंतर बडाते रहते हें।
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शरीर ओर मन शक्तियों का अकूत भंडार। केसे प्राप्त हो? |
यदि हम इस उत्पादन को अपव्यय [खर्च] से बचा सकें, ओर रचनात्मक दिशा में प्रयुक्त कर सकें तो वह सब कुछ इच्छित किया जा सकता है, जो हम चाहते ओर सोचते हें।
इस उत्पादन को अपव्यय से बचाने का एक मात्र रास्ता हे, "संयंम" ।
"संयंम" का ही अर्थ है, - शक्ति के अपव्यय को रोकना।
यह अपव्यय या खर्च प्रमुख रूप से शरीर की
दो इंद्रियों के द्वारा किया जाता है।
इनमे एक है जीभ [रसेन्द्रिय], ओर दूसरी जननेद्रिय।
जिव्हा या जीभ का पहला असंयंम है, उसका चटोरापन!
जायके के लिए हम अनावश्यक,ओर अवांछनीय [जिनकी जरूरत नहीं] ओर अभक्ष [न खाने योग्य] , पदार्थ खाते रहते हें। स्वाद का आकर्षण अधिक मात्रा में खाने को भी ललचाता है। जो पेट पर भारी पड़ती है। मिर्च मसालों की अधिकता मंद विष [जहर] का काम करते हें, जिससे अम्लपित्त या एसिडिटी आमाशय ओर आंतों की श्लेष्मकला [मुएकस मेम्ब्रेन] के जलने से हो जाती है। बदहजमी ओर अपच के चलते पाचन तंत्र धीरे धीरे इतना कमजोर हो जाता है, की बाद में कम मात्रा में खाये जाने वाले भोजन को नहीं पचा पाता। अपच भोजन पेट पर भार जेसा ही होता हे क्योकि जो शक्ति पेदा न कर सके वह ओर किसी काम का नहीं, वह तो सड़ कर दुर्गंधित गेस,पेड़ा करता है, ओर विषाणुओ/जीवाणुओं/ ओर परजीवियों [वोर्म्स] को पनपने का सुरक्षित स्थान बन जाता है। इस प्रकार से शरीर को पोषक तत्वों का अभाव दुर्बलता ओर रुग्णता को जन्म देता है।
इसी लिए हकीम लुक़मान का कहना है " आदमी अपनी जीभ से अपनी कब्र खोदता है" । यह जीभ ही यदि हमारे काबू में आ जाए "मिठाई, खटाई, चाट पकोड़ा, आचार चटनी की ओर लपकेंगे ही क्यों?"
सतत पार्टियों ओर घर में भी ये सब खाकर सभी को यह लगता भर है, की हमने जायकेदार ओर कीमती पकवान को खाकर आज बड़ा ही मजा किया। पर वस्तुत: यह अपने हाथ से अपने पेरों पर कुल्हाड़ी मारने जेसा है। "माले मुफ्त तो दिले बेरहम" माल यदि खाने मुफ्त भी मिल जाए तो सोचो भाई पेट तो अपना है।
यदि जायके को अधिक महत्व न दिया जाए सात्विक खाना खाया जाए तो न पेट खराब होगा ओर न बीमारी कमजोरी शरीर का प्रभावित कर पाएँगी। यदि खाना जरूरी ही हो तो कभी- कभी ही अति अल्प मात्रा में केवल चख़ कर ही क्या इन सबका आनंद नहीं लिया जा सकता?
जिव्हा का दूसरा असंयंम है, बकवास ?
जीभ के द्वारा ही हम निरर्थक ओर निरतर बोलते, निंदा करते,चुगली करते, शेख़ी बघारते, गप्पें हाँकते रहते हें। इसमें बहुत सारी शक्ति की बरवादी होती है। अनर्गल, असत्य, कटु ओर अनावश्यक न बोल कर जिव्हा पर संयंम रखा जा सके तो "वाणी" इतनी प्रभाव शाली हो सकती है, की दूसरों पर आश्चर्य जनक प्रभाव डाला जा सकता है। जितने भी प्रभाव शाली वक्ता देखे जाते हें, वे जिव्हा संयंम की ही देन हें। यह प्रभाव अधिक बड़ कर वरदान, आशीर्वाद दे सकने की क्षमता भी उत्पन्न कर देता है। मोन तपस्वी, ओर मोन साधना करने वालो की वाकसिद्धि होना गल्प नहीं है।
तपस्वियों की तरह से मोन साधना चाहे न कर सकें अनर्गल बकवास पर नियंत्रण कर भी इस बहुमूल्य शक्ति को बचाया जा सकता है, जो मानसिक शक्ति प्रदान कर भी शरीर को द्रड निरोगी ओर शक्ति शाली बनाया जा सकता है।
शक्ति के अपव्यय का दूसरा रास्ता है, - जननेद्रिय का "संयंम" ।
यह तो ओर भी अधिक महत्व पूर्ण होता है।
शरीर को जो कुछ भी उपलब्ध होता है, उसका सार तत्व -जो दूध में घी के समान होता हे वह है, शुक्र, वीर्य जिससे अंत में ओजस का निर्माण होता है। चेहरे पर चमक, वाणी में प्रभाव, आँखों में ज्योति, स्वभाव में साहस, मस्तिष्क में मेधा, इसी तत्व का प्रतिफल है। इस सार तत्व का जितना अधिक अपव्यय करता है वह मनुष्य उतना ही तन ओर मन से दुर्बल बन जाता है। इस दिशा में असंयंम होने से रोगी ओर दुर्बल संतान ही उत्पन्न करेगा। जननेद्रीय का असंयंम शरीर के सार तत्व से खिलवाड़ करना है। यह दुर्व्यसन की तरह एक लत या आदत बन जाए तो फिर विशिष्ट शक्तियाँ पाने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। विवाह का उद्देश्य दो आत्माओं का गठ बंधन है, अनावश्यक काम वासना भड़काने ओर एक दूसरे के शारीरिक, मानसिक, सर तत्व को नष्ट भ्रष्ट करने में जुट जाना मेत्रि नहीं है। संतती व्रद्धि के लिए आवश्यक मात्र में वासना को ढील देना मात्र ही इसका प्रयोजन हो, ओर संयंमित जीवन जीकर अभीष्ट शक्ति की प्राप्ति की दिशा में निरोगी सशक्त ओर दीर्घ जीवन जिया जा सकता है।
संयंम अर्थात शक्तियों का संचय, असंयंम अर्थात सामर्थ्य की बरवादी ओर कष्ट पूर्ण बीमार जीवन जीने के लिए बीज का रोपण। ओर अंत में पछतावा ।
असंयंमित जीवन -अर्थात
फिर पछताए का होत हे, जब चिड़िया चुग गई खेत।
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