Panchakarma in daily life?
दैनिक जीवन में पंचकर्म या शोधन?
पंचकर्म को हऊआ और आश्चर्य समझा जाकर आम जनता को भ्रमित किया जा रहा है| आज विश्व भर में आयुर्वेदिक पंचकर्म चिकित्सा ने धूम मचा रखी है| वर्तमान उपभोक्ता संस्कृति ने 99% पंचकर्म कार्य को केवल स्पा के रूप में स्नेहन- स्वेदन (मालिश और भाष्प स्नान), और शिरोधारा आदि सामान्य से क्रियाओं का प्रयोग कर इसे ही पंचकर्म कहा जा रहा है|
वास्तव में तो पंचकर्म को एक जीवन चर्या की तरह
हमारे ऋषि-मुनिओं ने समाविष्ट किया है| परन्तु आसान जीने की चाह और भाग-दोड भर्री
जिन्दगी ने इस जीवन चर्या को भुला दिया और हम सब इसे एक आश्चर्य जनक विधा की तरह
देख रहें हें|
आयुर्वेदीय पंचकर्म चिकित्सा पद्ध्ति जो पूरी
तरह से कायाकल्प करने में सक्षम है|
पंचकर्म से शरीर को शोधन होता है,
शरीर
तब तक साफ या शुद्ध न हो,
या शरीर में उसे ग्रहण करने की ताकत न हो तब तक
कोई भी रसायन या ओषधि अधिक पूर्ण लाभ नहीं दे सकती,
वह बिना पचे या अधिक असर करे मल मूत्र
द्वारा निकल जाएगी|
प्रत्यक्ष
अनुभव में सभी ने पाया होगा की अधिक असर के लिए ओषधि मात्रा बढ़ाते चले जाते हें|
उदाहरण के लिए
जैसे कब्ज या विवंध में लगातार कोई चूर्ण लेने पर,
वह क्रमश: धीरे धीरे असर करना कम करता
है,
फिर
अधिक मात्रा लेने पर दस्त आता है,
बाद में उससे कुछ होता ही नहीं|
एसा सिर्फ इसलिए ही होता है की शरीर में ओषधि
को ग्रहण या असर करने लायक नहीं रह जाता, जैसे गंदे कपडे पर रंग नहीं चड़ता, कपडा रंगने के पाहिले उसे धोना आवश्यक
है|
जब शरीर दूषित है, हाजमा कमजोर है, रोगों से लड़ने की ताकत नहीं, तो किसी भी रसायन या दवा का सेवन किया
जाये व्यर्थ है| ख़राब
हाजमा एसिडिटी, पाइल्स,
कोलेस्ट्रोल
बढाकर मोटापा, ब्लड-प्रेशर,
हृदय रोग,
डाइविटीज,
आदि आदि अनेक
रोग पैदा करता चला जाता है|
दैनिक जीवन में भी स्वयं पंचकर्म करके हम इसे
पुन स्वस्थ्य रख सकते हें|
रोग होने पर उसकी चिकित्सा में तो पंचकर्म चिकित्सक
की सहायता से ही करना होता है, पर यदि शरीर स्वस्थ्य है, कोई रोग नहीं, तो इसे हमेशा स्वस्थ्य रखना भी आवश्यक
है| खान
पान, वातावरण,
आचरण, मौसम, व्यवस्था के तनाव आदि नित प्रति
शारीरिक, और
मानसिक रोग उत्पन्न करते ही रहते हें| इसी लिए दैनिक जीवन में भी पंचकर्म करते रहना
आवश्यक है|
साधारणत: बिना जाने पंचकर्म जैसे कई क्रियाएं
कई व्यक्ति कभी कभी या रोज करते तो है, पर न जानते हुए आधे- अधूरे, अपूर्ण, या लापरवाही और कई जल्द-बाजी में करते
हें, इस
कारण न तो उसका पूर्ण लाभ लेकर स्वस्थ्य रह पाते हें और रोगाक्रमण होता रहता है|
यह बात सुनकर की दैनिक जीवन में पंचकर्म हम
करते है सभी को आश्चर्य प्रतीत होगा|
पर
यह सच है|
आईये जाने कहाँ कहाँ करते हें हम देनिक पंचकर्म
और फिर निर्णय करें की उनमें से कई को छोड़कर कितनी हानि उठा रहे है| पर इसके पूर्व एक बार और जान लें की पंचकर्म
में कोन कोन से कर्म (विधियाँ) आतीं हैं|
पंचकर्म के पहिले पूर्वकर्म में लंघन और पाचन,
स्नेहन (बाह्यऔर आन्तरिक) और स्वेदन तीन पूर्व कर्म करना जरुरी होते हें|
इअसके बाद बारी आती है पांच प्रमुख
कर्म की|
वमन,
विरेचन,
बस्ती,
नस्य,
और रक्त मोक्षण,
प्रमुख कर्म है|
प्रमुख पंचकर्म क्रियाये कर पश्चात् कर्म किया
जाता है| इसमें
संस्रजन, रसायन,
और शमन कर्म आते
हें|
यह सब मिल कर ही पंचकर्म कहता है जो शरीर का
कायाकल्प या नवजीवन (REJUVENATION) करता हैं|
आईये
अब देखे हम जीवन में इन्हें अपनाकर स्वस्थ्य जीवन व्यतीत करते है|
लंघन और पाचन-
उपवास, व्रत आदि जिनमे भोजन नहीं किया जाता यह ही लंघन
है| ज्वर
आदि कई रोगों में लंघन या लघु या अल्प भोजन करना ही लंघन के अंतर्गत आता है|
पंचकर्म का एक पूर्व कर्म पाचन है| खाना रोज हम खाते हैं, खाने में पाचन के लिए मसाले डालते हें,
पाचन के लिए
भोजन के साथ गर्म मसाला आदि तो जरुर खाते हें, परन्तु वह केवल स्वाद के लिए, उसमें विभिन्न प्रकार के स्वाद गंध आदि
मिलाकर, चटपटा
बनाकर खाने की कोशिश करते हें, ताकि हम खाना अधिक खा सकें, जबकि अधिक कि खाने से पाचन की आग उसी
प्रकार बुझ जाती है, जैसे,
आग पर जलने वाले
कोई भी पदार्थ भी अधिक मात्रा में डालने से आग को बुझा देता है| इससे पाचन नहीं हो पाता, विना पचा भोजन पेट में रहकर बदहजमी,
गेस आदि पैदा
करता है|
शरीर की स्वछता के लिए आवश्यक दैनिक कार्य मल
मूत्र विसर्जन, मुहं,
दांत से लेकर
नहाने धोने तक शरीर के हर भाग की सफाई, के बारे में सभी जानते हें और करते भी है,
परन्तु अधिकांश
पूर्व कर्म स्नेहन को कितना महत्व देते नहीं देते| शरीर पर अभ्यंग अर्थात मालिश तो जैसे
गए गुजरे ज़माने की बात हो गई है, पहलवानों का काम है, कह कर छोड़ चुके हें, या हममे से कुछ ही होंगे जो माह तो
क्या वर्ष में भी एकाध बार अभ्यंग (मालिश) करते हों|
यह तो हुई सारे शरीर के बाह्य स्नेहन की बात
अधिकांश आज सर और पेर में भी तेल नहीं लगाते, क्योंकि कई का मानना है की तेल लगाने
से सर में चिकनाहट जमा होगी, और रुसी (Dendraf) हो जाएगी, और पैरों में लगाने की बात कभी याद ही
नहीं आती, हाँ
विज्ञापन वाली क्रीमें जरुर याद कर लेते है|
आजकल सामान्य कान में तैल डालने को भी मना किया
जाता है, जबकि
कान के कुछ रोग जैसे पस आता हो, को छोड़कर तेल डालते रहा जाना, बहुत जरुरी है, ताकि कान में चिकनाहट बनी रहे और
स्त्रोत खुले रहें, मैल
आदि जम कर सूख जाने या पानी भरने से संक्रमण हो जाने का खतरा तैल डालते रहने से
नहीं होता|
प्रति दिन शिर से पेर सहित सारे शरीर पर थोडा
सा तैल जरुर लगाना चाहिए, ताकि शरीर पर नमी बनी रहे, रुक्षता से उत्पन्न वात को नियंत्रित
किया जा सके|
कर्ण पूरण, नाक में तेल घी आदि, डालना, यह भी तो पंचकर्म के स्नेहन का ही भाग
है|
जिस प्रकार पंचकर्म में आन्तरिक स्नेहन घी तेल
आदि से किया जाता है, उसी
प्रकार से दैनिक जीवन में भी हम खाने पीने में घी तेल मांस चर्बी आदि का प्रयोग कर
आंतरिक स्नेहन तो करते ही रहते हें, पर उस स्नेह का पाचन और सदुपयोग के लिए जो की
स्वेदन से किया जाता है, कम करते हें या नहीं करते| इससे वह दोष या खराबी के रूप में,
रक्त नलिकाओं,
लीवर, मांस-पेशी आदि में कोलेस्ट्रोल चर्बी,
या मेद आदि के
रूप में जमा होकर बीमारी का कारण बन जाया करती है|
इसके लिए स्वेदन करते रहना जो पंचकर्म का ही
पूर्व कर्म है बहुत जरुरी है| अधिकांश व्यक्ति तली घी तेल युक्त खाध्य खाकर
ठंडा पानी पीते हें, यह
उस फेट को शरीर में ज़माने का काम करता है, यदि अधिक घी तैल का खाना खाया है, तो पाचन हेतु गरम पानी पीने से उसका
पाचन भी होगा और गर्म जल से स्वेदन भी होगा, वे फेट पसीने आदि से शरीर में लाभ दायक
तत्व छोड़कर, शेष
(हानिकर कोलेस्ट्रोल) निकल जायेगा|
भाग दोड,
श्रम,
व्यायाम,
आदि शारीरिक कार्य करने से,
गर्म पानी स्नान,
भाप स्नानादी,
धुप,
आग पर सेक,
आदि से पसीना आता है,
यही स्वेदन है|
जितना स्नेहन हुआ यदि वह पसीना बन कर
नहीं निकला तो शरीर में रुक कर दोष तो पैदा करेगा ही|
समय का अभाव का नाम लेकर क्या हम स्नेहन
जितना स्वेदन कर रहे हें|
समय निकालकर परिश्रम, योग, व्यायाम से पसीना बहाने के साथ,
धूप, गर्म जल स्नान, अग्नि, भाष्प स्नान, भी सतत करते रहना चाहिए| इससे कोलेस्ट्रोल जमा नहीं होगा और हृदय रोग
डाइविटीज, ब्लड
प्रेशर, होने
ही नहीं पायेगा|
पंचकर्म के पूर्व किये जाने वाले पूर्व कर्म के
दैनिक जीवन में समावेश की बात के बाद आती है, पंचकर्म के पाहिले कर्म अर्थात वमन की|
वमन या उल्टी से सभी लोग बहुत डरते हें,
किसी भी कारण से
विना अचानक यदि उल्टी होती है तो हम अपना सारा जोर उसे बंद करने में लगाने लगते हें
बिना यह जाने की वह क्यों हो रही है?
उल्टी तब होती है, जब हमारे पेट में कुछ एसा या इतना अधिक
पहुँच जाता है जो स्विकार्य नहीं, बस शरीर उसे मुहं से बाहर फेंकने की कोशिश करने
लगता है यही उल्टी या वमन है| जो चीज शरीर को स्विकार्य नहीं उसे रोकने के
लिए नशे की दवा, एंटी
एमेटिक देना कहाँ तक उचित है| यदि आपने उसे रोक दिया तो वह आगे बढकर दस्त,
पेचिश आदि के
रूप में या सड कर खराबी, क्रमी, पैदा क्या नहीं करेगा?
आपने अनुभव किया होगा की एसा कुछ भी उल्टी से
निकल जाने पर थोडी देर बाद राहत मिल जाती है, यह भी जानते हें की गले में चिकनापन जो
खाने पीने से जमा हुआ, और
जिससे खांसी आदि कष्ट होने लगे यदि वह कफ निकल जाये तो कितना आराम मिलता है|
जब यह उल्टी या वमन अधिक होती हो तो प्राणों का
संकट खड़ा अवश्य होता है, जो अधिक खराबी के ज़मने या पेट में अधिक एकत्र
होने से हो सकता है| यदि
हम दैनिक वमन द्वारा प्रात: ही इस पित्त कफ को निकाल दें तो कभी कोई कष्ट की
सम्भावना क्या समाप्त नहीं होगी|
लगभग सभी को अनुभव में आया होगा कि कभी कभी
सुबह ब्रश करते समय अचानक उल्टी होने लगाती है, उल्टी में रात को यदि देर से खाया या
अधिक खाया हो तो खाना भी निकलने लगता है, या केवल मुहं को कडवा करने वाला पीला पीला
पित्त निकलता है, हम
घवरा जाते हें, पित्त
निकलने के बाद पानी पीने से शांति मिल जाती है, तो फिर घबराने की क्या बात है, लेकिन हम अगली बार एसा न हो इससे बचने
की कोशिश करते हें|
वास्तव में यही दैनिक वमन कर्म जैसी ही एक
प्रक्रिया है| यदि
हम प्रतिदिन प्रात; ब्रश
के बाद, गरारे
या अंगुली गले में डाल कर उल्टी करके पूर्व दिन का अपचित खाद्य निकालें और पित्त
आने तक वमन कर पेट साफ करते रहें, [पित्त आने के बाद पानी पीने से उल्टी बंद होती
है], तो
कभी भी एसिडिटी, आदि
पेट के रोग, खांसी,
श्वास आदि के
रोग नहीं होंगे| योग
आदि में पानी पीकर निकालना, कुंजर क्रिया आदि इसी का एक रूप है|
यदि एक दिन पूर्व गरिष्ट भोजन किया है या रात
देरी से या अधिक खाया है और प्रात: उसका कुछ अंश पेट में यदि है तो वह निकाल फेकना
जरुरी है, क्योंकि
उस खाद्य का रस भाग पचने के लिए आगे आंतो में चला गया है जो शेष है वह घुल या पिस
नहीं पाया, यह
अपक्व अन्न किट्ट सड कर केवल आलस, कब्ज, आदि कई दोष उत्पन्न करेगा, या आगे बाद भी गया तो आंत्र में एकत्र
होकर सड़ेगा, अत:
इसे प्रात: वमन कर निकलना ही उचित है|
इसके बाद बारी आती है पंचकर्म के दुसरे कर्म “विरेचन” की|
रोज शोच (मल विसर्जन) होना चाहिए, जिस दिन नहीं हुआ उस दिन बड़ा ही ख़राब
सा प्रतीत होता है, फिर
यदि शोच न होने की आदत बन जाये तो बदहजमी, कोन्सटीपेशन जो सभी रोगों की जड़ है, हो जाती है| इसके लिये जिम्मेदार है एसा खाना जो
अच्छी तरह पच या पिस नहीं पाया या पाचन योग्य नहीं बन पाया, वह आंतों में फसा रहकर सड़ता है और
एस्केरिस, टेप
वर्म, चिनुने
जैसे क्रीमी अमीवा आदि जीवाणुओं को बढाता है, और पेरिस्टेलसिस या आंत्र गति कम कर मल
निकलने नहीं देता, विवंध
पैदा करा देता है|
हालंकि दैनिक जीवन में खाने में कई चीजें होती
हैं जैसे घी,
तेल,
सब्जी,
आदि,
ये वस्तुएं मल को निकालने में सहायक भी
होती है,
इसलिए
इन्हें विरेचन करने वाली भी कहा जाता है|
परन्तु आवश्यक मात्रा में न लेने या अधिक लेने
से,
अथवा
उनके साथ विपरीत खाध्य जो मल को रोकते हें,
मिलाकर या साथ खाने से विरेचन या दस्त
लाने का काम प्रभावित होने लगता है|
यह दोष स्थाई बन जाये तो हानिकर होता है|
इसलिए प्रतिदिन
पेट साफ होता रहे तो ही अच्छा है|
यदि किसी चीज के खाने से यदि अधिक विरेचन या
दस्त हुए तो यह इस बात का प्रतीक है,
की कुछ ख़राब चीज पेट में गई और वह वमन या उल्टी
से भी नहीं निकली तो नीचे मलद्वार से निकलेगी जरुर उसे यदि रोक दिया जाये,
तो बड़ी आंत में रहकर सड़ेगी,
क्रीमी पैदा करेगी,
पोषण में रूकावट डालेगी,
और रोगों का कारण बनेगी|
अत: दैनिक जीवन में विरेचन होते रहना
भी उतना ही जरुरी है|
इसलिए पेट साफ़ होता रहे इसके लिए बेसमय खाना,
फ़ास्ट फ़ूड खाना,
अधिक खाना,
मिर्च-मसाले का
अधिक प्रयोग, सलाद,
और हेल्दी फ़ूड न
खाना, कब्ज
पैदा करता है, भोजन
में अजवायन, जीरा,
हींग, आदि कब्ज को दूर करता है|
बस्ती-
अगला क्रम बस्ती का आता है| कहा जाता है की यह आधुनिक एनीमा का ही
एक रूप है, परन्तु
एसा है नहीं|
आधुनिक एनीमा केवल अन्त्र शुद्धि या शोच के लिए
किया जाता है वहां बस्ती शब्द में शोधन, पोषण (शक्ति दान), और रोग निवारणार्थ जब ओषधि मुख द्वारा
दिया जाना संभव नहीं होता तब गुदा बस्ती, मूत्र-मार्ग, या योनी मार्ग द्वारा जिसे उत्तर बस्ती
कहते हें, किया
जाता है| यह
कार्य यदि सबकुछ ठीक-ठाक है तो जरुरत नहीं, पर प्राक्रतिक रूप से यदि सप्ताह या
माह में एक बार, मौसम
परिवर्तन के समय या गरिष्ट भोजन से हुए बदहजमी के समय यदि जल का बस्ती (एनिमा)
शोधन कर नई शक्ति देगी|
नस्य- नस्य जो प्रतिदिन करना चाहिए
कभी कभी जब सर्दी जुकाम हो तो मज़बूरी में में
विक्स, आदि
का प्रयोग करते हें, यह
ही नस्य-कर्म है| स्वस्थ्यावस्था
में घी तेलादी नस्य करें तो नकली विक्स आदि के नस्य की जरुरत नहीं पड़े|
पंचकर्म के ही अंतर्गत आने वाली कई क्रियाएं
जैसे कर्ण-पूरण, अक्षि
तर्पण (नेत्र के लिए), आदि
आदि देनिक जीवन में शुमार हों तो आने वाली कई समस्याओं से अनजाने ही बचा जा सकता
है|
हम सभी सदियों से यह सब करते आ रहे थे पर
आधुनिकता और विदेशी सभ्यता के अन्धानुकरण करते करते अपना सब भूल गए| आइये पुन: हम इस जीवन के महत्व पूर्ण
अंशों को जीवन चर्या में शामिल कर स्वस्थ्य रहें स्वस्थ्य बने|
शुभकामनाओं सहित –
इस विषयक किसी भी प्रश्न का उत्तर देने में
मुझे प्रसन्नता होगी - डॉ मधु सूदन व्यास
उज्जैन मप्र इंडिया 0734 -2519707
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