Rescue from incurable disease

Rescue from incurable disease
लाइलाज बीमारी से मुक्ति उपाय है - आयुर्वेद और पंचकर्म चिकित्सा |

आचरण - मानसिक स्वास्थ्य के लिए एक आवश्यक व्यवहार।

आचरण - आयुर्वेदीय दिनचर्या में आचरण को भी विशेष महत्व दिया गया है। इसका प्रभाव मनुष्य को मानसिक रूप से स्वस्थ रखें का काम करता है। स्मृतियों में इसे ही धर्म कहा गया है। धर्म शब्द को लेकर राजनीतिज्ञों ने बढ़ा हँगामा मचाया हुआ है। वास्तव में हम सबका धर्म है की सुख देने वाले अपने उपकारक पदार्थों की रक्षा करें। सभी प्राणियों की इच्छा होती है की वे "सुख" मिले, अत: उनकी सतत्  कोशिश सुख पाने के लिए ही होती है। सुख की प्राप्ति धर्म के विना हो नहीं सकती, सुख के ये साधन ही धर्म हें। यही आचरण भी है। 
     हम जैसा आचरण करेंगे वैसा ही प्रतिफल हमको प्राप्त होगा। जब हम कोई आचरण करते हें तब उसके कारण हमारी क्षमता का विकास भी उसी ओर होने लगता है, यह सब एक प्रकार से कम्पुटर में सेट होने वाले प्रोग्राम जैसा ही होता है। एक बार यह प्रोग्राम सेट हुआ, उसके  बाद हम को पता भी नही चलता की हम क्या कर रहे हें। या कहा जाए तो विवेक खो बेठते हें, ओर अनजाने ही वैसा आचरण उनके साथ भी करने लगते हें, जिनके (अपने परिजन आदि) साथ नहीं करना चाहिए था,  ओर यही बात मानसिक अवसाद, अनिद्रा, तनाव, आदि जैसे मानसिक रोगों को पैदा करती है। मानसिक रोग शरीर संतुलन के प्रभावित हो जाने से अन्य कई रोग भी उत्पन्न हो जाते हें।  
        इसके अंतर्गत ही निम्न आचरण (महिर्षी बाग्भट्ट द्वरा वर्णित) आते हें,  जिनका पालन करना ही धर्म माना गया है।  
  1. मित्र अमित्र विचार- शुभचिंतक ओर विपरीत चरित्र की पहिचान।
  2.  पापकर्म का त्याग-1-  हिंसा, 2- चोरी, 3- अन्यथाकाम (अनुचित रास्ते से सुख पाना), 4- पिशुनता (चुगल खौरी)। 5- परषवाक्य (कठोर या अप्रिय वचन), 6- अनृत (झूठ बात), 7- साभिन्नलाप (दोगलापन या कभी कुछ कहना, कभी कुछ कहना), 8- व्यापादं (ह्त्या की योजना), 9- अभिध्या (दूसरे की संपत्ति हड़पने की कोशिश), 10- दृग्विपर्यय [नास्तिकता, या आप्त (पूर्व से सिद्ध विचार) वाक्यों के विरूद्ध बोलना], इन दस मानसिक पापो का मन से परित्याग करें यही धर्म है। 
  3. अनुकूल व्यवहार - बेरोजगार, रोगी, पीडित, से शारीरिक या आर्थिक शक्ति के अनुरूप उचित व्यवहार करे।  
  4.  समदृष्टिता का निर्देश- सभी प्राणियों को अपने समान समझना। 
  5.  सम्मान करना- देवता, गाय, ब्राह्मण, नृप, वृद्ध तथा अतिथि का उचित सम्मान । यह प्राचीन परिस्थिति के अनुसार था, वर्तमान परिस्थिति के अनुसार देवता का अर्थ जो दूसरों के लिए दे अर्थात जनोपयोगी काम करने वाले, गाय तो लाभकारी होने से, ब्राह्मण अर्थात विद्वान, नृप याने शासक माता-पिता , सिनियर सिटीजन, ओर आगंतुक जो कोई ही हो सकता है का सम्मान करना चाहिए।
  6. याचको का सम्मान -- कुछ भी मागने वालों को यथा स्थिति ओर परिस्थिति के अनुसार सहायता। 
  7. उपकार - सभी का भला चाहें।
  8. समभाव -  सुख दुख में समान भाव से रहें। अर्थात हमेशा शांत रहें।
  9. मधुर भाषण -समय पर बोलें, हितकर बोलें, कम (युक्ति संगत) बोलें, अविसंवादी (जिसका कोई विरोध न हो) ओर पेशल(मीठा वचन),  बोलें। 
  10. सर्वधर्माचरण- सभी धर्मों के माध्यम मार्ग पर चलें अर्थात न तो किसी धर्म के घोर समर्थक बने न ही विरोधी। यही वाग्भट्टोक्तआयुर्वेदिक सदाचार है।
शरीर शुद्धि को भी आचरणों में सम्मलित किया गया है। इसके अंतर्गत, रोम, नख (नाखून),श्मश्रु(दाड़ी-मूंछ) अधिक न बढ़ावे, पैर, गुद (Anus) आदि  स्थानो, साफ रखें, प्रतिदिन स्नान, सुगंधित तैल, इत्र आदि का प्रयोग, स्वछ वस्त्र, धारण करें।
मोसम या समयानुकूल छाता, पगड़ी या टोपी, पदत्राण(जूते), दंड(डंडा),लेकर चार हाथ आगे तक ध्यान से देखते हुए चलें।    
आयुर्वेदोक्त निषिद्ध कार्य ----अगला लेख। 
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जीवन के चार चरणौ में (आश्रम) में वान-प्रस्थ,ओर सन्यास अंतिम चरण माना गया है, तीसरे चरण की आयु में पहुंचकर वर्तमान परिस्थिती में वान-प्रस्थ का अर्थ वन-गमन न मान कर अपने अभी तक के सम्पुर्ण अनुभवोंं का लाभ अन्य चिकित्सकौं,ओर समाज के अन्य वर्ग को प्रदान करना मान कर, अपने निवास एमआइजी 4/1 प्रगति नगर उज्जैन मप्र पर धर्मार्थ चिकित्सा सेवा प्रारंंभ कर दी गई है। कोई भी रोगी प्रतिदिन सोमवार से शनी वार तक प्रात: 9 से 12 एवंं दोपहर 2 से 6 बजे तक न्युनतम 10/- रु प्रतिदिन टोकन शुल्क (निर्धनों को निशुल्क आवश्यक निशुल्क ओषधि हेतु राशी) का सह्योग कर चिकित्सा परामर्श प्राप्त कर सकेगा। हमारे द्वारा लिखित ऑषधियांं सभी मान्यता प्राप्त मेडिकल स्टोर से क्रय की जा सकेंगी। पंचकर्म आदि आवश्यक प्रक्रिया जो अधिकतम 10% रोगियोंं को आवश्यक होगी वह न्युनतम शुल्क पर उपलब्ध की जा सकेगी। क्रपया चिकित्सा परामर्श के लिये फोन पर आग्रह न करेंं। ।

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