Rescue from incurable disease

Rescue from incurable disease
लाइलाज बीमारी से मुक्ति उपाय है - आयुर्वेद और पंचकर्म चिकित्सा |

"Nasya Karma" (A Panchakarma process) - Therapy for diseases affecting the head..

“नस्य कर्म” (एक पंचकर्म प्रक्रिया)- सिर के सम्पूर्ण अंगों के रोगों को ठीक करने वाली विधा है।
 डॉ. मधु सूदन व्यास
सामान्य रोग सर्दी जुकाम से प्रारम्भ होकर शरीर में किसी भी स्थान पर कोई भी रोग, या आकस्मिक घटना, दुर्घटना क्रोध,शोक, खूशी आदि आवेग, कुछ भी क्योंं न हो उसका प्रभाव गरदन से उपरी भाग पर अवश्य होता है। अधिकांश मामलों में मुहुँ बंद होने, या उससे लेने में असमर्थ होने से नाक से देने का उध्योग किया जाने लगता है, यह प्रक्रिया ही 'नस्य' का एक स्वरूप है। इसी कारण आयुर्वेदिक चिकित्सा विज्ञान में "नस्य कर्म" की पंच कर्म के एक उपक्रम के रूप में, बडी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। 
समाज में प्रचलित बफारे (भाप लेना), विक्स आदि कुछ सुंघाना, आदि जो नस्य का रूप हैं, के स्थान पर  आयुर्वेदिक विधि से नस्य द्वारा, रोगों की चिकित्सा करेंगे तो परिणाम अधिक लाभकारी मिल सकेंगें। कम से कम प्रत्येक आयुर्वेदिक चिकित्सक को तो इनका प्रयोग चिकित्सा में करना ही चहिये, ओर देनिक जीवन चर्या में कुछ प्रतिमर्श नस्य कर्म (नस्य जो चिकित्सक की निगरानी में करना जरुरी नहीं, आगे पड़ें -) प्रतिदिन करते रहने की प्रेरणा रोगी ओर समाज को देना ही चाहिये।

  • नस्य क्या है?  
  • नस्य कैसे लेते हैं? 
  • क्या चिकित्सक की सलाह बिना कैसा नस्य ले सकते हैं? 
  • कौन सा नस्य सलाह बिना नहीं लेना चाहिए? 
  • चिकित्सक नस्य कैसे करें? 

आदी आदि प्रश्नो के उत्तर जानने के लिए आगे पड़ें :-  

शिर मनुष्य का एक अतिमहत्व पूर्ण अंग है, यहीं पर सभी ज्ञानेंद्रीयां ओर शरीर संचालित करने वाला मस्तिष्क, श्वास, एवं भोजन ग्रहण करने, आदि सभी आवश्यक क्रिया सम्पन्न होतीं है। सिर की अस्थियां एक बडे गेंद की तरह अन्दर कई कमरों की तरह सभी महत्व पूर्ण कोमल अंगो को सुरक्षित रखता है।
नाक, गला कान, सहित सभी उर्द्वजत्रुगत (गर्दन से उपर के अंग) सभी रोगों से प्रभवित होते रह्ते हैं, ओर आयुर्वेद में इनकी सफाई के लिए, ओर उपचारके लिये नस्य (Nasya) कर्म की विचारणा की है।
नाक के मार्ग से ओषधि चूर्ण या औषधीय स्नेह (तैल घृत आदि) का उपयोग “नस्य कर्म” के रूप में जाना जाता है। नस्य का असर केवल नाक पर ही नहीं सारे मस्तक पर होता है।
आयुर्वेद की इस विधा को भी सामान्य जन भूल चुके हैं, हालंकि अभी भी नस्वार, धुम्रपान, जैसे विकृत रुप या विक्स या ओषधि पत्र आदि कि बफारा या भाप लेना आदि के रूप में समाज में प्रचलित है, परंतु सही प्रयोग न होने से उनके अच्छे परिणाम नहीं ले पा रहे हैं। आयुर्वेदिक चिकित्सकों को इन्हें अपनाना चहिये, जिससे इसके लाभ समाज को दिये जा सकें। नस्य कर्म पंचकर्म के वमन, विरेचन के पूर्व कर्म स्नेहन स्वेदन कर्म का सहयोगी, पोषक, या उप-अंग है।
नस्य को शिरोविरेचन, शिरोविरेक, मृदुविरेचन, नावन, आदि के  नामों से भी जाना जाता है। नासिका के छिद्रों को मस्तक का प्रवेश द्वार माना जाता है, यहॉ से ओषधि नासा विवरों (केविटी) के मध्यम से शिर में जाती है। इसलिये नस्य कर्म उर्ध्वंग (मस्तक से उपरी भागों) के रोग के लिये नस्य देते हैं। 
चिकित्सक या वैद्य के परामर्श से लिया जाने वाला नस्य "मर्श नस्य" और,
 बिना सलाह के  लिया  जा सकने  वाला "प्रतिमर्श नस्य" कहलाता है | 
प्रतिमर्श नस्य ?- प्रतिदिन प्रत्येक हर आयु के बालक-वालिका से वृद्ध स्त्री-पूरुषोंं तक को देने योग्य नस्य-  
स्नान के पूर्व नाक में एक बूंद घी या तैल, नाक कान गला रहेगा, हमेशा पूर्ण स्वस्थ्य?
जी हॉ एसा प्रतिमर्श नस्य (चरक) रोज लेने से हो सकता है!
प्रतिमर्श नस्य यह हमेशा ओर सभी को देने योग्य नस्य है। मात्रा ओषधि की एक बूंद (१ बूंद) दी जाती है। यह किसी भी मौसम में, ओर किसी भी आयु के बालक, युवा, प्रोड, या वृद्ध को दिया जा सकता है। इससे स्वस्थ व्यक्ति के हमेशा सभी स्त्रोत (कान, नाक, मुख गला) शुद्ध ओर स्वस्थ्य रहते हैं। एक अंगुली तैल में डुबा कर सिर उंचाकर नथुने में डाल कर भी इसे लिया जा सकता है।
प्रतिमर्श नस्य लगभग सभी समय यथ, प्रात: स्नान के पहिले या बाद, दिवांतवमन के बाद, भोजन के बाद, दिन शयन के बादमार्ग गमन के बादपरिश्रम के बादसह्वास के बाद, सिर अभ्यंग् के बादकवल-धारण, मुत्र त्यागमलत्याग के बादलिया जा सकता है। 


परन्तु प्रतिमर्श नस्य दुष्ट प्रतिश्याय, मदात्यय (शराब के नशे वाला व्यक्ति ), कान के रोगों से ग्रस्त रोगी को, शिर क्रमी पीडित को, ओर जिनके वातादी दोष अधिक उभरे हों नहीं लेना/ देना चाहिये।
मर्श नस्य ? - 
रोगी चाहता है, कि वह शिर आदि का भारीपन दूर हो, अंग पुष्ट हों जिससे रोग बार-बार न हो, ओर कष्ट शीघ्र दूर हो जाये, इसी विचार से नस्य की कल्पना की गई है। पर इनका प्रयोग चिकित्सक के निरिक्षण में ही किया जाना चाहिए 
आयुर्वेद में नस्य कर्म सामान्यत: तीन प्रकार का मान कर उनके कार्य के आधार पर नाम रखा गया है|  
1- विरेचन नस्य- जिससे शिर (खोपडी) के नाक, कान, मस्तक, आदि, पोले भागों (साइनास आदि) में जमा मल जो कफ दोष कहते हैं को बाहर निकालता है, इसलिये इसे शोधन नस्य भी कहते हैं।
2-बृहण – जो शिर के सभी अवयवों (अंगो) को पुष्ट करता है।
3- शमन ‌- जो कष्ट दे रहे (प्रकुपित) दोषों को शांत करता है।  
चिकिसकों के विशेष ज्ञान ओर समझने के उद्देश्य से आचार्य चरक, सुश्रुत, आदि आचार्यो ने नाम, विधि, कर्म आदी आदी कई विचार से वर्गी करण किया है। विशेष चिकित्सा करने का विचार रखने वाले चिकित्सक, ओर ज्ञान अभिलाषियों को जरुर जानना चाहिये (इस विषय में हमारा लेख देखें)।
विरेचन नस्य:- रोगों के विचार से इसका प्रयोग सिर दर्द, बुद्धि - मन पर हुए भारीपन (जड्ता, स्तम्भन), अभिष्यंद (आंख आना), गले में सूजन (शोथ), गले में गठान (गल्गंड), स्वर-भेद (आवाज बदलना), कफज ग्रंथि, नज़ला, जुकाम, पीनस, प्रतिश्याय, अपस्मार रोग (मिर्गी), में विरेचन नस्य देने से केविटी में जमा मल, कफ, पस आदि आसानी से निकल जाता है, ओर रोगी को सत्वर लाभ होता है।
दवाओं से कफ को सुखा कर, ठीक करने से केवल कुछ दिन का ही लाभ होता है, रोग पुन: लोट्ता है। जैसा कि एंटीबायोटिक के प्रयोग से विषाणु नष्ट होकर कफ पस सूखता है, रोगी तत्कालिक आराम अनुभव जरूर करता है, पर कफ पुन: वहॉ जमा होकर रोग वापस लोटाता है।
विरेचन नस्य, रोग के अनुसार, घृत/ तैल आदि निर्मित स्नेहन द्रव्य द्वारा मधु, लवण, आसव आदि के साथ दिया जाता है।
बृहण नस्य – रोगी का कफ विरेचन से निकालने के बाद जरूरत इस बात की होती है, कि रोगी की रोग प्रतिकार क्षमता (इम्युनिटी), बड जाये जिससे भविष्य में भी कभी रोग न हो तो बृहण नस्य देना चहिये।
विशेषकर सुर्यावर्त (सुर्योदय के समय होने वाला सिर दर्द), वात जनित सिर-दर्द, स्वर क्षय (आवाज बैठना), नासिका शोथ (साइनोसाइटिस), मुख-रोग, वाणी दोष (बोलने में तकलीफ), निद्रा भंग (नींद का बार- टुटना), अवबाहुक (स्कंध स्तम्भ या फ्रोजन शोल्डर), आदि रोगों में बृहण नस्य का प्रयोग, यदि कफ जमा है तो विरेचन के बाद, करने से रोगों कि पुनरव्रत्ति नहीं होती।
बृहण नस्य पुष्टीकारक तैल, घृत, राल, गुग्गलु, आदि से दिया जाता है, अमिषहारियों को विभिन्न मांस रस या रक्त से नस्य देने का विधान भी चरक आदि ग्रंथो में मिलता है, इसका अनुभव हमको नहीं है।
शमन नस्य- रोगों से होने वाले कष्टो से राहत हेतु उग्र लक्षणों को शांत करना भी जरूरी होता है, इस हेतु शमन नस्य दिया जाता है। वर्तमान में प्रचलित बफारे, ओषधीय भाप, शमन चिकित्सा ही होती है। आयुर्वेदिक चिकित्सा में विभीन्न ओषधि सिद्ध घृत, तैल, या पोधों के पत्र, पुष्प, तने आदि के रस, कल्क या क़्वाथ, गाय, बकरी दूध, या शीतल या उष्ण जल (पानी) से शमन नस्य दिया जाता है।
जो नस्य स्नेह अर्थात घी, तैल आदि से पोष्णार्थ देतें हैं उन्हे स्नेहन नस्य, ओर जो शोधन योग्य ओषधि से या मिश्रीत नस्य देने से वह शोधन नस्य भी कहलाता है।
ओषधि पत्रादि को मसलकर ओर दबा कर रस निकालकर देने को अवपीडन नस्य,  सुखा चुर्ण विशेष नली से फुंकने पर प्रधमन नस्य कहलाता है। इस प्रकार से अन्य नस्य भेदों का वर्णन भी किया गया है। [ देखें लेख – ]    
आयुर्वेद में योग शास्त्र के अंतर्गत “नेती” का प्रयोग भी कहा गया है, यह भी एक प्रकारंतर से शमन नस्य ही है, क्योंकि इसमें जल को नासिका छिद्र (नथुने) से खींचा जाता है, एसा हमेशा करते रहने वाले व्यक्ति को उर्ध्व जत्रु गत (गर्दन से उपर के) रोग कभी नहीं होते। पर यह योग्य गुरु की देख-रेख में ही करना चाहिये।
कितनी मात्रामें नस्य दिया जाये?
आयुर्वेदिक आचार्यों ने इसके लिये मात्रा भेद बताया है। नस्य की मात्रा के अनूसार नस्य का नामकरण भी कर दिया है। 
चिकित्सक की देख रेख में लेने योग्य नस्य :-
मर्श नस्य (चरक) -  उत्तम मात्रा- १० बुंद (५- ५ बूंद प्रत्येक नथुने में)–
                          मध्यम मात्रा ८  बुंद (४- ४ बूंद प्रत्येक नथुने में)
                          हीन मात्रा   ६ बूंद  ( ३- ३ बूंद प्रत्येक नथुने में )
विरेचन ओर शमन नस्य में कल्क, जल, क़्वाथ, से नस्य देना हो तब मर्श नस्य के उक्त उत्तम, मध्यम, हीन, मात्रा क्रम में प्रत्येक में से क्रमश: दो –दो बूंद कम करना चहिये। जैसे क्रमश: १० बूंद, ८ बूंद, ६ बूंद,  के स्थान पर ८ बूंद, ६ बूंद, ओर ४ बूंद का नस्य दिया जाता है।
नस्य कब दिया जाना चाहिये?
 मर्श नस्य रोग के विशेष रोग के दोष प्रकोप (कष्ट) के अनुसार समय/ विधि/ मात्रा/ ओषधि, आदि विचारकर देने से ही लाभ मिलता है। इसी कारण इसको मर्श नस्य कहा जाता है | 
रोगी के रोग-दोष अनूसार, समय चुनना चाहिये।
कफज रोग के लिये-  पूर्वान्ह  Morning.  
पित्तज रोग के लिये- मध्यान्न Midday. 
वातज रोग के लिये - अपरान्ह Evening. 
स्वस्थ् व्यक्ति को हमेशा स्वस्थ्य (Fit) बने रहने के लिए, दोष के अनूसार नस्य कराना चाहिये।
शरद ओर वसंत ऋतु में प्रात: काल, हेमंत ओर शिशिर (winter शीत काल) में दोपहर में, ग्रीष्म (summer)  में साय्ंकाल, ओर वर्षा ऋतु (rain) में जब धूप निकली हो तब नस्य करना चाहिये।
नस्य कितने दिन तक ?
इस बारे में अलग अलग आचार्यो की राय अलग अलग है, इसे अनुभव रोग के अनुसार, दिन के दोनों समय, एक दिन के अन्तर से, या एक सप्ताह रोज, निश्चित कर सकते हैं। वृद्ध वाग्भट्ट के अनुसार तब तक नस्य करना चाहिये, जब तक कि सम्यक योग (५ से ९ दिन में मिल जाते हैं) लक्षण न मिलें।    
स्नेहन सम्यक योग (नस्य अच्छा होने पर):- सुख पूर्वक श्वास-प्रश्वास, अच्छी नींद, जागने पर सुख अनुभूति, श्रवण शक्ति ओर घ्राण शक्ति (सुनने, सूंघने की क्षमता), प्राकृतिक हो जाना चाहिये।
स्नेहन हीन योग (कम):- सामान्यत यह रुक्ष नस्य से होता है, इसमें आंखों में जकडन,नासिका ओर मुख में सूखापन, शिर में सूनापन प्रतीत होता है ।
विरेचन नस्य सम्यक योग (अच्छा होना):- आंखों में हल्कापन, मुख शुद्धि, स्वर में स्पष्टता, होती है,
विरेचन नस्य में हीन (कम होना) या मिथ्या योग होने से शरीर में कृशता- दुर्बलता होती है।     
अतियोग (अधिक होना):- नस्य अधिक होने से नाक में खुजली, भारीपन, नासिका ओर नेत्रों से सतत पानी बहना, भोजन में अरुचि, तथा पीनस (प्रतिश्याय) का होना।
नस्य के लिए रोगी की स्तिथि 
नस्य कर्म के पूर्व आभ्यंतर स्नेह नहीं लेना है।
नस्य के लिये रोगी की दैनिक गतिविधि परिवर्तन आवश्यक नहीं।
पूर्व कर्म- रोगी जिसे नस्य देना हो, उसके नाक, कान, सिर, ग्रीव, मन्या (कनपटी) ओर मुख पर अर्थात गर्दन से उपरी सभी भाग पर कोष्ण (गुनगुने) तिल तैल की मालिश करें।
प्रधान कर्म- मल मुत्र विसर्जित करवाकर सीधे पीठ के बल लेटा दें| 
सिर एक तरफ नीचे की ओर झुका हो, रोगी के नेत्र बंद कर (आंख में चला न जाये इसलिये) फिर चिकित्सक अपने बायें हाथ कि अंगुली से नासाग्र उपर उठाकर ड्रापर से तैल या या चुटकी या नली आदि साधन से चूर्ण आदि छोड दें। 
पुन: दूसरी ओर झुकाकर दुसरे नथुने में छोडें।
ओषधि छोडने के बाद नाक के आस-पास कपोलों पर अंगुलियों से हलका मर्दन करें।
रोगी को दस मिनिट लेटा रहने दें, ओर नाक आदि से निकलने वाले स्राव साफ करवाते रहें।
पश्चात कर्म- नस्य के दस मिनिट बाद रोगीको उष्ण जल से मुख-नाक साफ करने को कहें| 
उष्ण जल से कवल धारण (कुल्ले करना)| 
गंडूश धारण (गरारे) कराना |  
पूरे सिर की पूर्व की तरह फिर मालिश करें।

विशेष :- रोगी को पूर्ण विश्राम ओर एक घंटे तक बाहरी वातावरण के सम्पर्क से बचायें।      
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समस्त चिकित्सकीय सलाह, रोग निदान एवं चिकित्सा की जानकारी ज्ञान (शिक्षण) उद्देश्य से है| प्राधिकृत चिकित्सक से संपर्क के बाद ही प्रयोग में लें| इसका प्रकाशन जन हित में आयुर्वेदिक चिकित्सा के ज्ञान, सामर्थ्य, हेतु किया जा रहा है। चिकित्सा हेतु नजदीकी प्राधिक्रत आयुर्वेदिक चिकित्सक से परामर्श लेँ। चिकित्सक प्रशिक्षण हेतु सम्पर्क करै।

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