इर्रिटेबल बोवेल सिंड्रोम (आईबीएस)- क्या आयुर्वेद अनुसार संग्रहणी
है?
डॉ मधु सूदन व्यास (उज्जैन)
यदि किसी
व्यक्ति को पेट दर्द होते होते ३ माह से अधिक हो गए हों,
और अनियमित ( वक्त वेवक्त) मल त्याग हो
तो उसे इरिटेबल बॉवेल सिंड्रोम हो सकता है| आँतों के इस रोग में, पेट में दर्द, बेचैनी व मल त्यागने (शौच करने) में समस्या होती है| आधुनिक चिकित्सक इसे स्पैस्टिक कोलन, इर्रिटेबल कोलन, म्यूकस कोइलटिस जैसे नामों से भी
जानते हैं।
पुरुषों
की तुलना में महिलाओं को अधिक प्रभावित करने वाला यह रोग केवल
शारीरिक कष्ट ही नहीं देते वरन उसकी सम्पूर्ण जीवन चर्या को प्रभावित करता है|
आधुनिक
शोधों में भी अभी तक इस रोग का कोई कारण ज्ञात नहीं हो सका है,
किसी भी प्रकार के विषाणु, या जीवाणु की
उपस्थिति भी प्रत्येक रोगी में नहीं पाई गई है, कुछ रोगियों में जीवाणु आदि मिले भी तो वे अन्य कारणों से मिले | कुछ शोधों में विटामिन डी की कमी से इसको होना बताया गया है, पर विटामिन डी देने से भी सभी रोगी ठीक होते नहीं हो पाए |
आधुनिक
एलोपेथिक चिकित्सा से, इस रोग
का कारण ज्ञात नहीं होने से रोगी ठीक नहीं हो पाते, इसीलिए
उनके द्वारा, कुछ उपचार जैसे भोजन में परिवर्तन,
दवा तथा मनोवैज्ञानिक सलाह, आदि से लक्षणों से छुटकारा दिलाने की कोशिश की जाती है।
एलोपेथिक
चिकित्सक इसे (इरिटेबल बॉवेल सिंड्रोम (आईबीएस) इसका मतलब अनियमित मलत्याग होना, जो कोई रोग नहीं बल्कि
एक साथ होने वाले कई लक्षणों का समूह [दस्त होना, मल कठिनाई
से पास होना, पेट साफ न होना, अपक्व मल,
कई बार मल के साथ खून जाना, मंद ज्वर, हाथ-पैरों में सूजन, आलस्य, चिड़चिड़ापन, खट्टी
डकारें आदि] मानते हैं, और इन्ही
लक्षणों के अनुसार चिकित्सा करते हैं| इससे अनावश्यक
एंटीबायोटिक आदि के कारण रोग ठीक नहीं होकर और अधिक प्रभावित होता चला जाता है |
इसकी
चिकित्सा आयुर्वेद में है, पर अक्सर जब रोगी किसी
आयुर्वेदिक चिकित्सक के पास पहुँचता है तब तक अधिक देर हो चुकी होती है|
इस
रोग के सम्पूर्ण लक्षण संग्रहणी से मिलते हैं| ग्रहणी
से तात्पर्य लघ्वांत्राग्र, पाचनांत्र, (Duodenum) मान कर भ्रमित होते हैं | भोजन का पाचन आमाशय से
निकलने के बाद ग्रहणी में ही प्रारम्भ हो जाता है, जहाँ पचने
से पूर्व पुनः पुनः खाना अपचन कर संग्रहणी रोग उत्पन्न करता है, इसी लिए बड़ी आंत इसके लक्षणों से अधिक प्रभावित
नजर आती है| आयुर्वेदिक चिकित्सक
इसी बात को ध्यान में रख चिकित्सा करता है |
आयुर्वेद
का भी मानना है की इस रोग के लिए कोई जीवाणु आदि जिम्मेदार नहीं होता |
रोगी
को इस रोग से चिड़चिड़ाहट, क्रोध,
गुस्सा, तनाव, आदि
इर्रिटेशन होने से इसे इर्रिटेबल बोवेल (आंत में) सिंड्रोम
(कई रोग का समूह) कहा जाता है |
अनिश्चित
और लाक्षणिक चिकित्सा और सोशल साइट्स पर आने वाले घरेलू चुटकुलों से कुछ कुछ लाभ
भी मिलता है पर वह अस्थाई होता है, कुछ
समय बाद ही समस्या पुनः खड़ी हो जाती है, चिंता ग्रस्त रोगी अवसाद का शिकार होने लगता है| मल में
खून जाने से खून की कमी (एनीमिया) भी हो सकता है |
रोगी
का वजन कम होना इस रोग में आम समस्या है|
इसका
रोगी रोग होने शराब, कार्बोनेटेड पेय पदार्थ, दूध,
फ़ास्ट फ़ूड, पिज्जा, कचोरी,
पकोड़ी, नमकीन, चना, सेम, मसालों और चॉकलेट , नट्स,
आदि कहते हैं तब रोग के लक्षण अधिक कष्टकारी होने लगते हैं |
पुरुषों
की तुलना में महिलाओं को इर्रिटेबल आंत्र
सिंड्रोम अधिक होता है, इसमें
हार्मोनल परिवर्तन होना एक बड़ा कारण सिद्ध हुआ है |
चिकित्सा:-
आयुर्वेदिक
रोग संग्रहणी मान कर चिकित्सा से आशातीत लाभ मिलता
है | चिकित्सा में तक्र कल्प,
पर्पटी कल्प, आदि चिकित्सा की जाती है,
पर रोगी को धैर्य पूर्वक लम्बे समय तक पथ्य पालन करना आवश्यक होता
है, अन्यथा रोग की पुनरावृत्ति होती रहती है |
आयुर्वेदिक
पंचकर्म के अंतर्गत बस्ती कर्म इसकी श्रेष्ट चिकित्सा सिद्ध हुई है |
इस चिकित्सा के बाद कुछ ही समय बाद पाचन क्रिया सामान्य होने लगती
है, रोगी पुनः सामान्य जीवन जी सकता है, रोग की पुनरावृत्ति भी नहीं होती |
बस्ती
के अंतर्गत पिच्छा बस्ती को हमने अपने अनुभव में अधिक श्रेष्ट पाया है |
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