जीवन का
अंतिम पड़ाव और मेरा विचार|
वैद्य मधु सूदन
व्यास उज्जैन
भारतीय
संस्कृति अनुसार जीवन के चतुर्थ पायदान पर आयु के 75 से अधिक वर्ष व्यतीत कर में
आज पहुँच गया हूँ, जितनी आयु का आनंद मेने उठाया है अब उससे कम वर्ष ही मुझे अब
जीना है,यह में जानता हूँ|
जीवन के पिछले
७७ वर्षों में यथा संभव परिजनों की सहायता भी की| अनुभव में आया की कई परिजनों ने
विगत जीवन में मेरी आर्थिक,शारीरिक आदि कई प्रकार से सहायता भी की, इस उस समय की तत्कालीन
सहायता को में वर्तमान में किसी भी मूल्य पर चुकाया तो जा ही नहीं सकता, सिवाय
इसके की शेष जीवन पर्यंत एसे याद रखूं|
कई परिजनों
की विशेषकर नजदीकी रिश्तेदारों की सभी प्रकार की मदद करने में भी पीछे नहीं रहा, उनमें कुछ को आज वह सहायता अहसान लगा, तो उनने उसे वर्तमान
मोल से चुका देने का उपालम्भ भी दे दिया, जिसने कुछ आघात भी पहुँचाया|
यह सब अनुभव
के बाद मुझमें कुछ अधिक परिवर्तन भी आया है: -
Ø
कई साथी, परिजन साथ छोड़ कर जाते है
तो अब दुःख नहीं होता| क्योंकि आज वो गए हैं , तो कल मेरी भी बारी है|
Ø
आज में अचानक भी दुनिया छोड़ता हूँ
तो भी मेरे बाद मेरे नजदीकियों का क्या होगा यह सोचना भी त्याग दिया है, क्योंकि
अनुभव में आया की कई यह सोचते और जीवन भर तड़पते रहे की उनके बाद उनका क्या होगा,
पर उनकी मृत्य के बाद भी उनके उत्तर वर्त्ति सामान्य जीवन जी रहे हैं|
Ø
अब मुझे किसी अधिक प्रभावशाली
व्यक्ति से भी कोई भय नहीं लगता, जान गया हूँ कि कोई किसी का कुछ विगाड ही नहीं
सकता, जो कर सकता है उससे कोई विशेष हानि होने वाली नहीं|
Ø
पहिले की तुलना में अब स्वयं को
अधिक समय देना शुरू कर दिया है क्योंकि में जान गया हूँ, की कोई मेरे भरोसे नहीं
है,में नहीं करूँगा तो भी किसी का कोई काम रुकने वाला नहीं|
Ø
छोटे छोटे विक्रेताओं दुकानदारों से
यह जानते हुए भी की वे कुछ अधिक वसूल रहे हैं, के साथ तोल मोल करना बंद कर दिया है
क्योंकि जितना नजदीकियों ने लूटा उससे भी कम वे मांग रहे होते हैं, अत: उनका एसा
करना बुरा नहीं लगता|
Ø
भंगार लेने वालों, कचरे से सामान
बीन कर ले जाने वालों को एसा सामान जिससे किसी को पांच –पचास मिल सकते हैं यूँ ही
देकर उनके चहरे पर ख़ुशी देख अच्छा लगता है|
Ø
रास्ता चलते कभी कभी सड़क पर बेचने
वालों से अनावश्यक खिलोने आदि व्यर्थ की चीजें भी खरीद लेता हूँ और उनको जरुरत मंद
बच्चों या लोगों को देकर ख़ुशी का आनंद उठाने से नहीं चूकना चाहता|
Ø
घर पर या कहीं भी खाने पीने में मीन
मेख नहीं निकल कर चुपचाप खाने की आदत बनाने की कोशिश कर रहा हूँ|
Ø
किसी से भी बहस करने की बजाय अब
शांति से किसी की बात सुनने और सहमत होने के आदत बनाने में लगा हुआ हूँ| इससे अधिक
शांति का अनुभव करता हूँ|
Ø
लोगों के अच्छे काम या विचारों की खुले दिल से
प्रशंसा करता हूँ। ऐसा करने से मिलने वाले आनंद का मजा लेता हूँ।
Ø
किसी के भी द्वारा उपयोग की जा रही
विलासता आदि ब्रांडेड चीज़ से व्यक्तित्व का मूल्यांकन करना छोड़ दिया है।
व्यक्तित्व विचारों से प्रघट होता है वस्तुओं से नहीं, में यह समझ गया हूँ।
Ø
अब में एसे व्यक्तिओं से दूरी बनाकर रखता हूँ जो अपनी जड़ मान्यता और
विचार मुझ पर थोपना चाहते हैं, और उनकी बुरी आदतों में मेरा साथ चाहते है| अब में
उन्हें सुधारने की कोई भी कोशिश भी नही करता क्योंकि कई लोगों ने यह पहले ही कर
दिया होता है|
Ø
अब कोई मुझसे किसी भी बात या काम
में आगे जाना चाहता है तो में उसे शांति से रास्ता दे देता हूँ, अब उससे कोई प्रतिस्पर्धा
नहीं चाहता| अब मुझे कोई भी प्रतिद्वंदी लगता ही नहीं |
Ø
अब मैं वही करना चाहता हूँ और करता
हूँ जिससे मुझे आनंद आता है। लोग क्या सोचेंगे या कहेंगे, इसकी चिंता छोड़ दी है। किसी को खुश करने के लिए अब मेने अपना मन मारना
छोड़ दिया है|
Ø
बाज़ार, होटल में रहने खाने आदि की बजाय घर का बना खाना, पेड़ पोधों में मन रमा कर प्रकृति
के करीब जाना पसंद करता हूँ। जंक फूड की बजाय ज्वार की रोटी और सादा दाल सब्जी में संतोष पाता हूँ।
Ø
अपने ऊपर हजारों रुपये खर्च करने की
बजाय किसी जरूरतमंद को पाँच सौ हजार रुपये देने का आनंद लेना सीख गया हूँ, और हर किसी की मदद पहले भी करता था और अब भी करता हूँ। और में यह भी जानता
हूँ कि वे मुझ से मदद के लिए झूठ बोल रहे हैंl
Ø
मेरे पास आने वालो रोगियों को में
अब निशुल्क या उनको स्वीकार्य फीस या राशि एक बॉक्स में डलवा कर चिकित्सा कर देता
हूँ| में परवाह नहीं करता की जो ओषधि में दे रहा हूँ उसका मूल्य मुझे मिल भी रहा
है या नहीं| पर में अब यह भी पाया है की अब कुछ लोग मुझे कुछ अधिक ही दे देतें
हैं, में उस अतिरिक्त धन को जरुरत मंदों की चिकित्सा में व्यय करता हूँ|
Ø
कोई गलत भी कहे तो में अब अपना पक्ष
सही साबित करने की बजाय मौन रहना पसंद करने लगा हूँ। कुछ कहने की बजाय चुप रह कर उनको लगने देता हूँ कि वे सही
हैं l
Ø
मुझे मेरा शरीर, आत्मा, नाम, धन सब किसी
ने मुझको दिया हुआ है, जब मेरा अपना कुछ भी नहीं है, तो खोने के
लिए मेरे पास भी कुछ है ही नहीं|
Ø
अपनी सभी प्रकार की तकलीफों, कठिनाइयाँ, या दुख किसी को न पहिले कभी कहता या
बताता था, पर अब किसी को भी अहसास करना भी छोड़ दिया है, क्योंकि
मेरे विषय में कोई जो कुछ भी समझता है उसे कहना नहीं पड़ता और जिसे समझना चाहिए वह
समझता नहीं और न ही समझना चाहता है|
Ø
अब अपने आनंद में ही मस्त रहना
चाहता हूँ क्योंकि स्वयं के किसी भी सुख या दुख के लिए केवल मैं ही जिम्मेदार हूँ,
यह मुझे समझ आ गया है।
Ø
हर पल को जीना सीख रहा हूँ, क्योंकि
अब समझ आ गया है कि जीवन बहुत ही अमूल्य है, यहाँ कुछ भी स्थायी
नहीं है, कुछ भी कभी भी हो सकता है, ये
दिन भी बीत जाएँगे।
Ø
आंतरिक आनंद के लिए मानव सेवा,
जीव दया और प्रकृति की सेवा में डूब जाना चाहता हूँ, मुझे समझ आया है कि अनंत का मार्ग इन्हीं से मिलता है।
Ø
शाश्वत सत्य समझ रहा हूँ, स्वयं में
खोकर प्रकृति
में रहने लगा हूँ, मुझे समझ आ गया
है कि अंत में इसी प्रकृति की गोद में समा जाना है।
Ø
देर से ही समझा हूँ मान पर अब सब समझ
आ गया है,
अब शायद
मुझे जीवन जीना आ गया हैl
हो सकता है की किसी भी अन्य की नजर में में अब भी गलत हूँ?